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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
है, मैं शपथ करके यहाँ आयी हैं। भूखसे पीड़ित बाघको जो किसी दुर्गम स्थानमें उगी हो; क्योंकि लोभसे इहलोक मुझे अपना जीवन अर्पण करना है।
और परलोकमें भी सबका विनाश हो जाता है। लोभसे बछड़ा बोला-माँ ! तुम जहाँ जाना चाहती हो; मोहित होकर लोग समुद्रमें, घोर वनमें तथा दुर्गम वहाँ मैं भी चलूँगा। तुम्हारे साथ मेरा भी मर जाना ही स्थानों में भी प्रवेश कर जाते हैं। लोभके कारण विद्वान् अच्छा है। तुम न रहोगी तो मैं अकेले भी तो मर ही पुरुष भी भयंकर पाप कर बैठता है। लोभ, प्रमाद तथा जाऊँगा, [फिर साथ ही क्यों न मसै?] यदि बाघ तुम्हारे हर एकके प्रति विश्वास कर लेना-इन तीन कारणोंसे साथ मुझे भी मार डालेगा तो निश्चय ही मुझको वह उत्तम जगत्का नाश होता है; अतः इन तीनों दोषोंका परित्याग गति मिलेगी, जो मातृभक्त पुत्रोंको मिला करती है। अतः करना चाहिये। बेटा ! सम्पूर्ण शिकारी जीवोंसे तथा मैं तुम्हारे साथ अवश्य चलूंगा। मातासे बिछुड़े हुए म्लेच्छ और चोर आदिके द्वारा संकट प्राप्त होनेपर सदा बालकके जीवनका क्या प्रयोजन है ? केवल दूध पीकर प्रयत्नपूर्वक अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये। रहनेवाले बच्चोंके लिये माताके समान दूसरा कोई बन्धु पापयोनिवाले पशु-पक्षी अपने साथ एक स्थानपर निवास नहीं है। माताके समान रक्षक, माताके समान आश्रय, करते हों, तो भी उनके विपरीत चित्तका सहसा पता नहीं माताके समान नेह, माताके समान सुख तथा माताके लगता। नखवाले जीवोंका, नदियोंका, सींगवाले समान देवता इहलोक और परलोकमें भी नहीं है। यह पशुओंका, शस्त्र धारण करनेवालोंका, स्त्रियोंका तथा ब्रह्माजीका स्थापित किया हुआ परम धर्म है। जो पुत्र दूतोंका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जिसपर पहले इसका पालन करते हैं, उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है।* कभी विश्वास नहीं किया गया हो, ऐसे पुरुषपर तो विश्वास
नन्दाने कहा-बेटा ! मेरी ही मृत्यु नियत है, तुम करे ही नहीं, जिसपर विश्वास जम गया हो, उसपर भी वहाँ न आना । दूसरेकी मृत्युके साथ अन्य जीवोंकी मृत्यु अत्यन्त विश्वास न करे, क्योंकि [अविश्वसनीयपर] नहीं होती [जिसकी मृत्यु नियत है, उसीकी होती है। विश्वास करनेसे जो भय उत्पन्न होता है, वह विश्वास तुम्हारे लिये माताका यह उत्तम एवं अन्तिम सन्देश है; करनेवालेका समूल नाश कर डालता है। औरोंकी तो मेरे वचनोंका पालन करते हुए यहीं रहो, यही मेरी सबसे बात ही क्या है, अपने शरीरका भी विश्वास नहीं करना बड़ी शुश्रूषा है। जलके समीप अथवा वनमें विचरते हुए चाहिये। भीरुस्वभाववाले बालकका भी विश्वास न करे; कभी प्रमाद न करना; प्रमादसे समस्त प्राणी नष्ट हो जाते क्योंकि बालक डराने-धमकानेपर प्रमादवश गुप्त बात भी है। लोभवश कभी ऐसी घासको चरनेके लिये न जाना, दूसरोंको बता सकते हैं। सर्वत्र और सदा सँघते हुए
* नास्ति मातृसमो नाथो नास्ति मातृसमा गतिः । नास्ति मातृसमः नेहो नास्ति मातृसमं सुखम् ॥
नास्ति मातृसमो देव इहलोके परत्र च। एनं वै परम धर्म प्रजापतिविनिर्मितम् ।ये तिष्ठन्ति सदा पुत्रास्ते यान्ति परमो गतिम्॥
(१८।३५३-५४) + समुद्रमटवीं दुर्ग विशन्ते लोभमोहिताः । लोभादकार्यमत्युप्रै विद्वानपि समाचरेत् ।। लोभात्प्रमादाद्विरम्भात्रिविधैः क्षीयते जगत् । तस्माल्लोभं न कुर्वीत न प्रमादं न विश्वसेत् ॥ आत्मा हि सततं पुत्र रक्षणीयः प्रयत्नतः । सर्वेभ्यः श्वापदेभ्यश्च म्लेच्छचौरादिसङ्कटे॥ तिरक्षा पापयोनीनामेका वसतामपि । विपरीतानि चित्तानि विज्ञायन्ते न पुत्रक । नतिनां च नदीनां च भूङ्गिणां शस्त्रधारिणाम्। विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च ॥ न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् । विश्वासाद्भयमुत्पत्र मूलादपि निकृन्तति । न विश्वसेत् स्वदेहेऽपि बालेऽप्याभीतवेतसि । वक्ष्यन्ति गूढमत्यर्थ सुप्रमत्ते प्रमादतः।
(१८ । ३५९-६५)