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॥४२॥
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-आत्मारूपी निर्मलतेजमें निश्चय (विश्वास) करना तो निश्चयसम्यग्दर्शन है तथा उसी तेजमें जान पना निश्चयज्ञान है तथा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानस्वरूपमें स्थित रहना सम्यक्चारित्र है और इन तीनोंकी एकता कर्मबंधके नाशकरनेवाली है तथा इसनिश्चयरत्नत्रयसे जो वाह्य है सो वाह्य ही है और चाहे वह शुभ हो चाहै अशुभ हो बंधका ही कारण है। तथा बंधका कारण होनेसे संसारका भी कारण है ऐसा श्रुतज्ञानके पारंगत आचार्य कहते हैं। इसलिये भव्यजीवोंको निश्चयरत्नत्रयके ही लिये प्रयत्न करना चाहिये। तथा व्यवहाररत्नत्रय को भी सर्वथा न छोड़कर निश्चय रत्नत्रयका साधक समझना चाहिये ॥८॥
॥ इसप्रकार रवत्रयका वर्णन समाप्त हुआ । ॥ अब आचार्य दशधर्मका वर्णन करते हैं।
उत्तमक्षमाधर्मका खरूप ।
मालिनी। जड़जनकृतवाधाक्रोधहासप्रियादावपि सति न विकारं यन्मनो याति साधोः ।
अमलविपुलचित्तैरुत्तमा सा क्षमादौ शिवपथपथिकानां सत्सहायत्वमति ॥८२॥ अर्थः-मूर्खजनोंकर कियेहुवे बंधन हास्य आदिके होनेपर तथा कठोर वचनोंके बोलनेपर जो साधु अपने निर्मल धीर वीर चित्तसे विकृत नहीं होता उसीका नाम उत्तमक्षमा है तथा वह उत्तमक्षमा मोक्षमार्गको जाने वाले मुनियोंको सबसे प्रथम सहायता करनेवाली है ॥२॥
वसंत तिकका । श्रामण्यपुण्यतरुरत्र गुणौधशाखापत्रप्रसूननिचितोऽपि फलान्यदत्वा ।
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