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पचनन्दिपश्चविंशतिका । बात जो अत्यंत बुद्धिमान तथा सामर्थ्यवान हैं ऐसे इन्द्र ईश्वर (महादेव)तथा धरणीन्द्र है वेभी नहीं करसकते किंतु मुझ अल्पवुद्धिने इस आपके स्तोत्रके करनेका साहस किया है इसलिये यह मेरा एकप्रकारका बड़ाभारी अपराध है अतः विनयपूर्वक प्रार्थना है कि इस मेरे अपराधको आप क्षमा करें ।। ६० ।।
तं भव्वपोमणंदी तेयणिहीणो सरुव्वणिद्दोसो मोहंधयारहरणे तुह पाया मम पसीयंतु ॥
खं भव्यपग्रनंदी तेजानिधिः सूर्यवन्निदोषः
मोहांधकारहरणे तव पादौ मम प्रसीदेताम् ॥ अर्थः--हे जिनेश हे प्रभो आप भव्यरूपी कमलोंको आनंदके देनेवाले तथा तेजके निधान और निर्दोष सूर्यके समान हैं इसलिये मोहरूपी अंधकारके नाश करनेकेलिये आपके चरण सदा प्रसन्न रहैं ।
भावार्थ:-जिसप्रकार सूर्य कमलोंको आनंदका करनेवाला होता है तथा तेजका भंडार होता है और निदोष होता है तथा उसकी किरण समस्त अंधकारके नाश करनेवाली होती हैं उसीप्रकार हे प्रभो आप भी भव्यरूपी कमलोंको आनंदके देनेवाले हैं तथा तेजके निधान हैं तथा निर्दोष हैं इसलिये आप सूर्य के समान हैं इसलिये विनयपूर्वक प्रार्थना है कि आपके चरण मोहरूपी अंधकारके नाश करनेकोलये सदा मेरेऊपर प्रसन्न रहैं ॥११॥
इसप्रकार श्रीपद्मनंदिआचार्यद्वारा रचितश्रीपद्मनंदिपंचविंशतिकामें
ऋषभस्तोत्र समाप्तहुआ ।।
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