Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 482
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ४६९॥ www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । शार्दूलविक्रीड़ित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिंतादुष्परिणाम संततिवशादुन्मार्गगाया गिरः कायात्संवृतिवर्जितादनुचितं कर्मार्जितं यन्मया । तन्नाशं ब्रजतु प्रभो जिनपते त्वत्पादपद्मस्मृतेरेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् समर्था भवेत् ॥ अर्थः- हे प्रभो हे जिनेन्द्र चिंतासे खोटे परिणामोंकी संततिसे तथा खोटे मार्गमें गमन करनेवाली वाणीसे और संवर रहित शरीरसे जो मैंने नानाप्रकारके कर्मोंका उपार्जन किया है वे समस्तकर्म आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे सर्वथा नाशको प्राप्त होवे क्योंकि आपके दोनों चरणकमलोंकी जो स्मृति है वह निश्चयसे मोक्षफलके देनेवाली है इसलिये वह पापकर्मो के नाशकरनेमें क्यों नहीं समर्थ होगी ? ॥ भावार्थ:- हे जिनेश मैंने खोटे पदार्थोंकी चिंतासे तथा खोटे परिणामोंसे कुत्सितवचनोंसे और संवरकररहित शरीरसे अनेक प्रकारके कर्मोंका संचय किया है किंतु हे जिनेन्द्र अब उनकम के नाशका उपाय आपके दोनों चरणकमलोंकी स्मृतिही है अतः उससे ये मेरे समस्तपाप नष्ट होजायें क्योंकि आपके दोनों चरणकमलोंकी स्मृतिमें जब जीवोंको मोक्षरूपीफलके देनेकी शक्ति मोजूद है तब क्या वह स्मृति इन पापकर्मों के नाशमें समर्थ नहीं होसकती है अवश्यही होसकती है ॥ १२ ॥ वसन्ततिलका । वाणी प्रमाणमिह सर्वविदस्त्रिलोकीसझन्यसौ प्रवरदीपशिखासमाना । स्याद्वादकांतिकलिता नृसुराहिवंद्या कालत्रयप्रकटिताखिलवस्तुतत्त्वा ॥ १३॥ अर्थः--जो सर्वज्ञदेवकी बाणी स्याद्वादरूपीकांतिकर संयुक्त है और जिसकी मनुष्य देव नागकुमार सब ही स्तुतिकरते हैं तथा जो तीनोकालोंमें रहनेवाले समस्ततत्वको प्रकट करनेवाली है अतएव जो तीनलोक For Private And Personal ॥ ४६९॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527