Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 491
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४७८॥ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थ:--जबतक निर्मल धर्मकी प्राप्ति नहीं होती तबतकतो आपात में चिंता रहती है तथा जन्म मरणसे भी भय रहता है किन्तु यदि इस मनुष्य भवका फल निर्मल धर्म मेरे पास मोजूद है तो नतो मुझे आपत्तिमें किसी प्रकारकी चिंता हो सकती है और न मुझको जन्म मरणसे भी भय हो सकता है ॥१२॥ इति श्रीपदानंदिआचार्य द्वारा विरचित श्रीपद्मनदिपंचविशतिकामें एकत्वभावना नामक अधिकार समाप्त हुवा । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अथ परमार्थबिंशतिः । शार्दूलविक्रीड़ित । मोहद्वेषरतिश्रिता विकृतयो दृष्टाः श्रुताः सेविताः वारम्बारमनंतकालविचरत्सर्वाङ्गिभिः ससृतौ ॥ अद्वैत पुनरात्मनो भगवतो दुर्लक्ष्यमेकं परं बीजं मोक्षतरोरिदं विजयते भव्यात्मभिर्वदितम् ॥१॥ अर्थ संसारमें अनंतकालसे भ्रमण करते हुवे प्राणियोंने मोह द्वेष रागके आश्रित जो विकार हैं उनको देखा है सुना है तथा उनको अनुभव भी किया है किंतु भगवान आत्मा के अद्वैतको न देना है और न सुना है तथा उसका अनुभव भी नहीं किया है इसलिये कठिनीतिसे देखने योग्य तथा एक और उत्कृष्ट तथा भव्यजीवोंसे सदा बदित ऐसा यह भगवान आत्माका अद्वैत इसलोकमें जयवंत है॥ भावार्थः-मोह राग द्वेष आदिकर्मों का विकार समस्त संसारी प्राणियों के साधारणरीतिसे पाये जाते हैं इस लिये जो जीव अनंत कालसे संसारमें भ्रमण करने वाले हैं उन्होंने अनेकवार इन मोहविकारों को देखा है तथा क. पुस्तमें " दुर्लक्षम् " यह भी पाठ है ।। 100.00000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ आ४७८॥ For Private And Personal

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