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॥४९२॥
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पवनन्दिपञ्चविंशतिका । तत्त्वं वागतिवर्ति शुद्धनयतो यसर्वपक्षच्युतं तद्धाच्यं व्यवहारमार्गपतितं शिष्यार्पणे जायते । प्रागल्भ्यं न तथापि तत्र विवृतौ बोधो न ताहग्विधस्तेनायं ननु मादृशो जडमतिर्मोनाश्रितस्तिष्ठति ॥
अर्थः-शुद्धनिश्चयनयसे तो तत्व वचनके अगोचर है तथा समस्तप्रकारके पक्षोंकर (अपेक्षाओंकर ) रहित है किन्तु व्यवहारमार्गमें आयाहुआ वह तत्त्व शिष्यों के बोधकेलिये वाच्य (वचनके द्वारा कहनेयोग्य ) होता है तो भी (ग्रंथकार कहते हैं कि उसतत्त्वके व्याख्यानके करनेमें न तो मुझमें भलीभांति प्रौढ़ता है और न मुझमें उसके वर्णनकरनेयोग्य ज्ञानही है इसलिये मेरे समान जडबुद्धीपुरुष मौनकोधारणकर ही रहता है
भावार्थ:-यद्यपि शुहनिश्चयनयसे तत्त्व अवाच्य है तथा समस्तप्रकारकी अपेक्षाओंकर रहित है तो भी वह तव शिष्यों को बोधकरानेकेलिये व्यवहारसे वाच्य है वचनसे कहा जासकता है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं तो भी इसपरमार्थतत्त्वको मैं भलीभांति वर्णन नहीं करसकता क्योंकि उसतत्त्वके वर्णन करनेमें न तो मुझे अपने में प्रौढ़ताही प्रतीत होती है और न उतना मुझमें ज्ञानही विद्यमान है इस्लिये मैं अब मौनको ही धारण करताहूं ॥१॥
इसप्रकार श्रीपद्मनन्दि आचार्यद्वारा विरचित श्री पद्मनन्दिपंचविंशतिकामें
परमार्थसंगतिनामक अधिकार समाप्त हुआ।
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अथ शरीराष्टकाधिकारः ।
शार्दूलविक्रीडित । दुर्गंधाशुचिधातुभित्तिकलितं संछादितं चर्मणा विण्मूत्रादिभृतं क्षुधादिविलसदुःखाखुभिश्छिद्रितम् । क्लिष्टं कायकुटीरकं स्वयमपि प्राप्तं जराबन्हिना चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते ॥१॥
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