Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 511
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४९८॥ 144.000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००44444 पचनन्दिपश्चविशतिका । अर्थः-यह मनुष्यतो इसशरीरकी रक्षाकरने में तथा पोषण करने में सदा लगारहता है परंतु कालकी आज्ञाकारिणी दासी यह वृद्धावस्था सदा उसशरीरको जर्जस्ति अर्थात् छिन्नभिन्न करती रहती है और यदि आपसमें ईर्षा द्वेष करनेवाले ऐसे इन जन्ममरणोंके मध्यमें काल है आगे जिसके ऐसी सबको जीतनेवाली यह वृद्धावस्था मोजूद है तो यह शरीर सदाकाल रहेगा ऐसा मनुष्योंको क्या दृढ विश्वास है ? भावार्थः-यदि इसशरीरको रातदिन उजाड़नेवाली यह कालकी दासी वृद्धावस्था न होती तबतो मनुष्योंका नानाप्रकारसे इसशरीरकी रक्षाकरना, दुध दही घी आदि स्निग्धपदा से और इत्र फुलेल सुगंध लगाकर इसशरीरका पोषणकरना व्यर्थ न होता किंतु मनुष्यतो सदा इसशरिका रक्षण करता रहता है और सदाही इसका पोषण करता रहता है तो भी यह दुष्टा जरा उसको उजाड़ती ही रहती है इसलिये सदा कियाहुवा भी रक्षण तथा पोषण इसशरीरका व्यर्थही होजाता है और यदि परस्परमें इर्षा रखनेवाले जन्ममरणके मध्यमें सबको जीतनेवाली और जिसके आगे काल मोजूद है ऐसी वृद्धावस्था न होती तवतो मनुष्योंको, यह शरीर सदाकाल रहेगा कमीभी नाश नहीं होगा ऐसा विश्वास करना उचित होता लेकिन कालकी दासी सबोंको जीतनेवाली तृपहावस्थातो जन्ममरणोंके वीचमें बैठी हुई है इसलिये क्या निश्चय है कि यह शरीर सदा काल रहेगा इसलिये जो मनुष्य वास्तविक तत्त्वके स्वरूपको जाननेवाले हैं उनको चाहिये कि वे इस शरीरको स्थिर समझकर व्यर्थ इसकी रक्षा तथा पोषण न करें और यह स्थिर है यह भी न माने ॥८॥ इतिश्रीपद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्रीपदानदिपंचविंशतिकामें शरीराष्टकनामक अधिकार समाप्त हुवा । 1000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००00000 ॥४९८ For Private And Personal

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