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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । आपसमें परिघट्टन अर्थात् घिसना होता है तथा उस परिघट्टनसे अत्यंत अपवित्र फलकी प्राप्ति होती है इसलिये थोडेसे सुखकी प्राप्तिकेलिये विहानलोग कैसे उसमैथुनमें आदर करसकते हैं। कभी भी नहीं करसकते ।
भावार्थः--यह नियम हैं कि कारण जैसा होता है कार्यभी वैसाही होता है यदि कारण अच्छा होवे तो कार्यभी उससे अच्छाही उत्पन्न होता है और यदि कारण खराब होवे तो कार्य भी उससे खराब ही उत्पन्न हुआ देखने में आता है मैथुन उस समय होता है जिस समय कामी दोनों स्त्री पुरुषोंको कामकी अतितीव्रता होती है तथा तीव्रताके होने पर जब उन दोनोंके अत्यंत अपवित्र शरीरॉका आपसमें मिलाप होता है इसलिये जब दोनों अपवित्र शरीरोंका मिलाप ही मैथुनकी उत्पत्तिमें कारण पड़ा तो समझना चाहिये कि मैथुन का एक अत्यंत खराब फल है इसलिये इसप्रकारके मैथुनसे उत्पन्न हुवे थोड़े सुम्नमें विद्वान लोग कैसे आदरको कर सकते हैं? अर्थात् कभी भी नहीं कर सकते ॥ ४ ॥
अशुचिनि प्रसभं रतकर्मणि प्रतिशरीररतिर्यदपि स्थिता ।
चिदरिमोहविजृभणदूषणादियमहो भवतीति निषेधिता ॥ अर्थः-कामके वशीभूत होकर वलात्कारसे अत्यंत अपवित्र मैथुनकर्मके होनेपर कामी स्त्री पुरुषों के शरीर में उत्पन्न हुई यह कामसंबंधी प्रीति चैतन्यका वैरी जो मोह उसके फैलावके दूषणसे होती है इसलिये यह कामकी प्रीति सर्वथा निषिद्ध मानी गई है।
भावार्थः-जबतक इस आत्मामें मोहनीय कर्मकी प्रवलता रहती है तबतक वास्तविक चैतन्यस्वरूपआत्माका प्रगट नहीं होता क्योंकि आत्माका जो वास्तविक चैतन्य खरूप है उसका यह मोहनीय कर्म प्रवल वैरी संसार में है। और यह जो रति उत्पन्न होती है सो इस मोहनीय कर्मकी प्रवलतासेही होती है क्योंकि काम
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