Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 524
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । के वशीभूत होकर जब दोनों स्त्री पुरुष परस्पर में स्नेह रूपी रस्सी में बंध जाते हैं तथा स्नेह रूपी रस्सी में बंध कर जब वे मैथुन कर्म में प्रवृत्त होते हैं उस समय उन दोनों के शरीरमें यह काम संबन्धी रति स्थित होती है इसलिये इस रतिकी उत्पत्ति आत्माके वास्तविचैतन्यके वेरी मोहके फैलावसही होती है इसीलिये सर्वथा वास्तविक वस्तुके स्वरूपसे हटानेवाली इस रतिका निषेध विद्वानलोगोंने किया है ॥ ५॥ निरवशेषयमद्रुमखंडने शितकठारहतिर्ननु मैथुनम् । सततमात्महितं शुभमिच्छता परिहतिविधिनास्य विधीयते ॥ अर्थः -आचार्य कहते हैं कि यह मैथुन कर्म समस्त संयमरूपी वृक्ष के खंडन करनेमें तीक्ष्ण कुठारकी धाराके समान है इसलिये जो मनुष्य निर्मल अपनी आत्माके हितके करनेवाले हैं वे इसका सर्वथा त्याग कर देते है। भावार्थः-पांच प्रकारके स्थावर तथा जीवोंकी जो रक्षा करना है इसीका नाम संयम है वह संयम मैथनकर्ममें प्रवृत्तिहोनेपर कदापि नहीं पलता है क्योंकि मैथुनकर्म के करनेसे अनेकप्रकारके जीवोका विघात होता है इसलिये मैथुन करनेसे किसी प्रकारके आत्माके हितकी प्राप्ति नहीं होती है इसीलिये जो पुरुष यह चाहते हैं कि हमारी आत्माका किसीप्रकारसे हित होवे वे इस महान निकृष्ट पापके करनेवाले मैथनकर्मका सर्वथा त्याग करते हैं अतः आत्महितीषयाको कदापि इस मैथुनकर्म की ओर ऋजु नहीं होना चाहिये किंत इसका दूरसे ही त्याग करदेना चाहिये ॥ ६॥ मधु यथा पिवतो विकृतिस्तथा वृजिनकर्मभृतः सुरते मतिः। न पुनरेतदभीष्टमिहागिनां न च परत्र यदायतिदःखदम ॥ अर्थ:-जिसप्रकार मदिरापीनेवाले पुरुषको, विकार होते हैं उसीप्रकार जो पुरुष पापी हैं उसकी सदा रति 000000000000000000०००००००००००००००००००००००००............ ॥५१॥ For Private And Personal

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