Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 521
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५०८॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 4 पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका। | पडता है इसलिये मैथुन समस्तजीवोंको अधिक दुःखका देनेवाला है ऐसा भलीभांति समझकर जिनसज्जन पुरुषोंने उसमैथुनको अपनी स्त्रीके साथभी करना अनुचित समझा है वे सज्जनपुरुष दुसरी स्त्रियोंसे तथा अन्य प्रकारसे मैथुन करना कैसे योग्य समझ सकते हैं ॥१॥ पशव एव रते रतमानसा इति बुधैः पशुकर्म तदुच्यते । अभिषया ननु सार्थकयानया पशुगतिः पुरतास्य फलं भवेत् ॥२॥ अर्थः-जो मनुष्य मैथुनकरनेके अत्यंत अभिलाषी हैं वे साक्षात् पशू ही हैं क्योंकि जो वास्तविकरीतिसे पदार्थों के गुणदोर्कको विचारनेवाले हैं ऐसे बुद्धिमानोंने इसमैथुनको पशुकर्मकहा है सो इसमैथुनको पशुकर्म कहना सर्वथा ठीकही है क्योंकि मैथुनकरनेवाले मनुष्योंको मैथुनकर्मसे आगे पशुगति ही होती है। भावार्थ:-मैथुनको विहानलोगोंने पशुकर्म इसलिये कहा कि जिसप्रकार पशुओंका काम हित तथा अहितकर रहित होता है उसीप्रकार इसमैथुनमें भी मनुष्य बिना इसके गुणदोषविचारही प्रवृत्त होजाता है इसलिये इसप्रकारके मनुष्य जोकि सदा मैथुनकाही इच्छाकरनेवाले हैं और उसमें उत्तरोत्तर अभिलाषाको वढातेही जाते हैं वे साक्षात् पशुही है तथा विद्वानलोगोंने जो इसमैथुनको पशुकर्मसंज्ञादी है सो बिलकुल ठीकही है क्योंकि जो मनुष्य बड़ी लालसापूर्वक इसमैथुनकर्मके करनेवाले हैं उनको आगेभवमें जाकर पशुगति ही मिलती है इसलिये आगे जाकर इसमैथुनकर्मकाफल पशुगतिकी प्राप्ति ही है ॥२॥ याद भवेदवलासु रतिः शुभा किल निजासु सतामिह सर्वथा। किमिति पर्वसु सा परिवर्जिता किमिति वा तपसे सततं बुधैः ॥३॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि सज्जनपुरुषोंको यदि अपनी स्त्रियोंके साथ मैथुनकर्मकरना शुभ होता ....०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ५०८ For Private And Personal

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