Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 520
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५०७॥ 000+ 000000 पअनन्दिपश्चविंशतिका । रूपी विषका फैलाव फैलगया है । इसलिये ये अत्यंत दुःखी हैं तथा इनकी सम्यग्दर्शन रूपी दृष्टिभी बंद होरही है। इसलिये आचार्यबर इनको उपदेश देते हैं कि हे भव्यजीवो यदि उसविषको नाशकर तुम सुखी होना चाहते हो तो यहकामकरो कि श्रीमान् मुनिपद्मनंदिके (हमारे ) मुखरूपी चंद्रमासे निकले हुवे इस स्नानाष्टक रूपी अमृतका पानकरो जिससे तुम सुखी होजाबो तथा तुम्हारे ऊपर मोहरूपी सर्पके काटने से उत्पन्न हुवा जो मिथ्यात्वरूपी विष वह सर्वथा नष्ट होजावे ॥ इसप्रकार श्रीपद्मनंदिद्वाराविरचितश्रीपद्मनंदिपविशतिकानामकग्रंथमें स्नानाष्टकनामक अधिकार समाप्तहुवा । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अथ ब्रह्मचर्याष्टकम् । भवविवर्धनमेव यतो भवेदधिकदुःखकरं चिरमंगिनाम् । इति निजांगनयापि न तन्मतं मतिमतां सुरतं किमतोन्यथा ॥१॥ अर्थः-जिस मैथुनके करनेसे संसारकीही वृद्धि होती है तथा जो मैथुन समस्तजीवोंको अत्यंतदुःखका देनेवाला है इसलिये सज्जनपुरुषोंने उसको अपनी स्त्रीके साथकरना भी ठीक नहीं मानाद वे सज्जन दूसरी स्त्रियोंसे अथवा अन्यप्रकारसे उसको कैसे अच्छा मानसकते हैं? भावार्थ:--मैथुनके करनेसे अनेकप्रकारके कीड़ोंका विघात होताहै तथा विधातसे हिंसाहोती है और हिंसासे कर्मोंका बंध होता है तथा कर्मों के बंधसे इसपंचपरावर्तनरूप संसारमें घूमना पड़ता है इसलिये मैथुनके करनेसे केवल संसारकी वृद्धि ही है तथा मैथुनके करनेसे मनुष्योंको नानाप्रकारके दुःखोंका सामना करना 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 For Private And Personal

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