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१५०५॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । आदिनदियोंके जलोंको और रजआदि दूसरी वस्तुओंको भी इससर्वथा अपवित्र शरीरकी शुद्धिमें कारण न समझे किन्तु इनको उलटे अपवित्र करनेवाले ही समझे ॥ ५ ॥
सर्वेस्तीर्थजलेरपि प्रतिदिनं स्नानं न शुद्धं भवेत् कर्पूरादिविलेपनैरपि सदा लिप्तं च दुर्गंधभृत् । । यत्नेनापि च रक्षितं क्षयपथप्रस्थायि दुःखप्रदं यत्तस्मादपुषः किमन्यदशुभं कष्टं च किं प्राणिनाम् ॥
अर्थः-संसारमें जितने प्रयागआदि तीर्थ हैं। तथा जितनी उनतों में गंगाआदिक विशाल २ नदियां हैं। यदि उनसबनदियोंके जलसे धोयाभी जाये तो भी यह शरीर शुद्ध नहीं होसकता। तथा अत्यंत सुगन्धित कपूर आदि पदार्थों से भी यदि इसके ऊपर लेप कियाजावे तो भी यह सुगन्धयुक्त नहीं होता। किन्तु उल्टा दुर्गधयुक्त ही होजाता है और इसकी अनेकप्रकारोंसे यदि रक्षाभी की जाय तोभी यह शीघ्रही नष्ट होजाता है। तथा यह शरीर नानाप्रकारके दुःखोंको भी देनेवाला है इसलिये जीवोंको इसशरीरसे अधिक न तो कोई अशुभ है तथा कष्टका देनेवाला भी कोई इससे अधिक नहीं है।
भावार्थ:-बहुतसे मनुष्य यह समझते हैं कि जलसे स्नान करनेपर यह शरीर शुद्ध होजायगा किन्तु आचार्य इसवातका उपदेश देते हैं कि अरेभाई थोडेसे जलकी तो क्या बात है यदि समस्ततीर्थों के जलसे भी इसशरीरको धोयाजावे तोभी यह रंचमात्र भी शुद्ध नहीं होता। तथा बहुतसे यह जानते हैं कि अतर फुलेल कपूर आदिकसे लिप्त करें तो यह सुगंधियुक्त होजायगा किंतु आचार्य इसवातको पुकार २ कर कहते हैं कि इस दुगंधमय शरीरसे चाहे जितना अतर लगायाजाय । चाहे जितना फुलेल लगायाजाय और कपूरभी खूब लगायाजाय, तोभी यह शरीर अंशमात्र भी सुगंधित नहीं होसकता किंतु उल्टा और दुर्गधमयही होता चलाजाता है । तथा वहुतसे मनुष्य यह समझते हैं कि यह हमारा शरीर सदाकाल कायम रहे इसलिये वे इसके
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