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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अथ स्नानाष्टकम् । शार्दूलविक्रीदिव ।
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सन्माल्यादि यदीयसन्निधिवशादस्पृश्यतामाश्रयेडिण्मूत्रादिभृतं रसादिघटितं वीभत्सु यत्पूति च । आत्मानं मलिनं करोत्यपि शुचिं सर्वाशुचीनामिदं संकेतैकगृहं नृणां वपुरपां स्नानात् कथं शुद्ध्यति ॥ अर्थः — जिसशरीर के संबन्धमात्रसेही उत्तम सुगंधित पुष्पों की बनी हुई मालाभी स्पर्श करनेयोग्य नहीं रहती हैं और जो शरीर विष्टा मूत्र आदिकसे चौतर्फी भरा हुवा है और अनेकप्रकारके रस आदिकोंसे बना हुवा है और अत्यंत भयका करनेवाला है तथा दुर्गंधसे व्याप्त है और जो शरीर अत्यंत पवित्र भी आत्माको मलिन करदेता है और समस्तजितनेभर संसार में अपवित्र पदार्थ हैं उनसवका संकेत घर है ऐसा यह मनुष्यों का शरीर जलके स्नानसे कैसे शुद्ध होसकता है ? ॥
भावार्थः — अनेक मनुष्य ऐसा समझते हैं कि यह शरीर स्नान करनेसे पवित्र होता है लेकिन यह सर्वथा उनकी भूलही है क्योंकि जो मनोहर पुष्पोंकी माला अत्यंत सुगंधित तथा उत्तम होती है वह मालाभी एक समय इसशरीर के संबंधसेही ऐसी होजाती है कि औरकी तो क्या बात ? उसका स्पर्श भी नहीं कियाजाता है और स्वयं यह शरीर विष्टा मूत्र आदि निकृष्ट पदार्थोंका भंडार है तथा अनेकप्रकारके रसोंसे भराहुवा है और अत्यंत भयंकर तथा दुर्गन्धमय है और यद्यपि आत्मा पवित्र है लेकिन यह शरीर उस आत्माको भी अपवित्र बनालेता है और जितनेभर संसार में अपवित्र पदार्थ हैं उनसबका स्थान यह शरीरही है इसलिये ऐसा निकृष्ट शरीर कैसे जलसे शुद्ध होसकता है ? कदापि नहीं होसकता ॥ १ ॥
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