Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 510
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४९७॥ ܠܟ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । संसारस्तनुयोग एष विषयो दुःखान्यतो देहिनो बन्हेर्लोहसमाश्रितस्य घनतो घाँतो यथा निष्ठुरात्। त्याज्या तेन तनुर्मुमुक्षुभिरियं युक्त्या महत्या तया नो भूयोपि यथात्मनो भवकृते तत्सन्निधिर्जायते ॥ अर्थः-जिसप्रकार लोहके आश्रित अग्निको अत्यंत कठिन घनसे घात (चोट) सहने पड़ते हैं उसी । प्रकार शरीरके संवन्धसे यह संसार होता है और संसारसे जीवोंको अनेकप्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं इसलिये जो भव्यजीव मुमुक्ष हैं अर्थात् मोक्षके अभिलाषी हैं उनको ऐसी किसी बड़ीभारी युक्तिकेसाथ इसशरीरका त्याग करदेना चाहिये कि जिससे पुनः इस आत्माको संसारमें भ्रमण करानेकोलिये इसशरीरका संबंध न होवे ॥ भावार्थ:-जिससमय लोहपिंड अग्निमें रखदिया जाता है और जब वह अग्निस्वरूप परिणत होजाता है उससमय जिसप्रकार उसलोहके पिंडके साथ २ उस अग्निपरभी अत्यन्त कठोर घनके द्वारा अनेक चोटें पड़ती हैं उसीप्रकार जबतक इसशरीरका संबंध रहता है तबतक जीवोंको नाना प्रकारके दुःखोंका सामना करनापड़ता है क्योंकि इसशरीरके संबंधसे जीव नानाप्रकारके पापोंका उपार्जन करता है और उनपापोंसे उसको इसचतुर्गतिस्वरूप संसारमें घूमना पड़ता है और संसारमें घूमनसे उसको अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं इसलिये आचार्यवर उपदेशदेते हैं कि जो मनुष्य मुमुक्षु हैं अर्थात संसारके दुःखोंसे छूटकर मोक्षको जाना चाहते हैं उनको चाहिये कि वे ऐसी किसी बड़ीभारी युक्तिसे इस शरीरका त्यागकरें कि फिरसे अनेक भावों में भ्रमण करानेवाले इसशरीरका आत्माके साथ संबंध न होवे ॥७॥ रक्षापोषविधौ जनोस्य वपुषः सर्वः सदैवोद्यतः कालादिष्टजरा करोत्यनुदिनं तजर्जरं चानयोः । स्पर्धामाश्रितयोर्दयोर्विजयनी सैका जरा जायते साक्षात्कालपुरस्सरा यदि तदा कास्था स्थिरत्वे नृणाम्।। १स. पुस्तक म पातायतो निष्ठुरात् यह भी पाठ है ।। 0000000000000000000००००००००००००००00000000000000000कर Hln४९७॥ For Private And Personal

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