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n४९५॥
पअनन्दिपश्चविंशतिका । कर रहित होवे तथा धूपसे सूखी हुई होवे और अंतरंगमें भारी न होवे तो नदी के पार होनेमें समर्थ होती है उसी प्रकार यह शरीर भी है क्योंकि यह भी तूं के समान कडुवा दुःखका देनेवाला है और यदि यही शरीर मोह तथा खोटे जन्मरूपी छेदोंकर रहित होवे। तपरूपी धूप से सूखा हुवा होवे और अंतरंग आभिमान कर सहित न होवे तो अवश्यही यह संसाररूपी नदी के पार होने में समर्थ हो सकता है अन्यथा असार है इसलिये भव्य जीवों को ऐसा ही प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे उनका शरीर मोहादि छिद्रोंकर रहित होवे और तप सहित होवे तथा अतरंगमें आभिमान करके साहित न होवे तभी उनको मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है ॥४॥
मालिनी भवतु भवतुं यादृक् ताहगेतद्धपुमें हृदि गुरुवचनं चेदस्ति तत्तत्त्वदाश।
त्वरितमसमसारानंदकंदायमाना भवति यदनुभावादक्षया मोक्षलक्ष्मीः ॥ अर्थः-वस्तुके वास्तविकस्वरूपका दिखानेवाला यदि गुरूका वचन मेरे मनमें विद्यमान है तो यह मेरा शरीर जैसारहै वैसारहै कोई चिंता नहीं क्योंकि मनमें विद्यमान उस श्रीगुरूके वचनके अनुभवसे ही चातकी बातमें असाधारण सर्वोत्तम आनंदको देनेवाली तथा अविनाशी मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
भावार्थः- यदि मनमें गुरूका वचन विद्यमान न रहै और उससमय शरीर पुण्यकी संचयकरने वाली शुभक्रियाओं में न लगा हो तो उससमय चिंता अवश्य करनी चाहिये और यदि समस्तपदाथोंके वास्त. विकस्वरूपका प्रकाशकरने वाला गुरूका वचन मनमें विद्यमान है तो शरीर चाहे कैसाभी रहे कोई चिंता नहीं क्योंकि उसगुरुके वचनके अनुभवसे ही दुसरी जगहपर न पायाजाय ऐसी सर्वोत्तम आनंदको देनेवाली तथा आविनाशी मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है इसलिये जहां तक बने वहां तक भव्यजीवोंको गुरूके
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