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पचनन्दिपश्चविंशतिका । | और इसको खराब नहीं मानता है ॥२॥
नृणामशेषाणि सदैव सर्वथा वपूंषि सर्वाशुचिभांजि निश्चितम् ।
ततः क एतेषु बुधः प्रपद्यते शुचित्वमम्बुस्तुतिचंदनादिभिः ॥३॥ अर्थः-मनुष्योंके समस्तशरीर सदाकाल सबप्रकारसे अपवित्र हैं ऐसा भलीभांति निश्चित है इसलिये संसारमें ऐसा कौनसा बुद्धिमान पुरुष होगा जो इस शरीरको स्नानसे तथा चंदनसे पवित्र करनेका प्रयत्न करेगा।
भावार्थः-यदि मनुष्यका शरीर किसीपकारसे तथा किसीकालमें पवित्र होता तबतो स्नानोंसे तथा चंदनोंके लेपसे इसका पवित्र करना मनुष्योंका फलप्रद समझा जाता परंतु यह शरीरतो न किसप्रिकारसे शुद्ध होसकता है और न किसीकालमें पवित्र होसकता है इसलिये जो मनुष्य वास्तविकरीतिसे शरीरकी दशाको जान नेवाले हैं ऐसे वे विद्वानपुरुष कभी भी स्नान तथा चंदनादिके लेपोंसे शरीरको शुद्ध बनानका प्रयत्न नहीं करते॥३॥ तिक्तेश्वाकुफलोपमं वपुरिदं नैवोपभोग्यं नृणां स्याच्चेन्मोहकुजन्मरन्धरहितं शुष्कं तपोधर्मतः ।। नांते गौरवितं तदा भवनदीतीरे क्षमं जायते तत्तत्तत्र नियोजितं वरमथासारं सदा सर्वथा ॥४॥
अर्थः-मनुष्योंका शरीर कड़वी तूमडीके समान है इसलिये वह सर्वथा उपयोग करनेके योग्य नहीं है यदि यही शरीर मोह तथा खोटे जन्मरूपी छिद्रोंकर रहित होवे और तपरूपी धूप से सूखा हुवा होवे और अंतरंगमें अभिमान करके सहित न होवे तो यह संसाररूपी नदींसे पारकरनेमें समर्थ हो सकता है इसलिये उस शरीरमें उत्कृष्ट भी चंदन आदि लगाना सदा सर्वथा असारही है। ..
भावार्थ:-जिस प्रकार तूंबी कड़वी होनेके कारण उपभोग योग्य नहीं होती और यदि वही तूंबी छिद्र
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पुस्तक में तिस्वाकु यह भी पाठ है॥
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