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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । हैं इसलिये आचार्यवर उपदेशदेते हैं कि जिन मुनियोंका मन आलोचना करके सहित है तथा जो समस्त कासे रहित आत्मासे संबन्ध रखनेवाले हैं अर्थात् कर्मरहित आत्माके ध्यान करनेवाले है और जो तत्वों के ज्ञानमें दत्तचित्त है उनको चाहिये कि वे सर्वथा समस्तप्रकारके परिग्रहोंसे रहितही रहैं अर्थात् किसीपदार्थमें (ममेदं ) यह मेरा है ऐसी बुद्धि कदापि न करें ॥ १८ ॥ जायंते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च। जोषं वागपि धारयत्यविरतानन्दात्मशुद्धात्मनश्चिन्तायमपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मनः पंचताम् ॥
अर्थः-सदा आनन्दस्वरूप जो शुद्धात्मा उसके चितवन होनेपर रस जो है सो विरस होजाते हैं और गोष्ठी में जो कथाका कौतुहल है वह नष्ट होजाताहै और समस्तविषय नष्ट होजाते हैं तथा शरीरमें भी अंशमात्र भी प्रीति नहीं रहती और बाणी भी जोषको धारणकरलेती है अर्थात् मौनका अवलम्बन करना पड़ता है और समस्तदोषोंके साथ मनभी नष्ट होजाता है।
भावार्थ:-जबतक मनुष्य निरंतर आनन्दस्वरूप परमात्माका विचार नहीं करता तबतक उसको रस प्रिय लगते हैं गोष्ठीकी कथाका कौतुहल भी उत्तमलगता है और तबतक विषय भी नष्ट नहीं होते तथा शरीरमें भी प्राति बनी रहती है और बाणी भी मौनको धारण नहीं करती तथा समस्तदोष भी मौजूद रहते हैं और मनभी कायम बना रहता है किन्तु जिससमय उस आनन्दस्वरूप परमात्माका विचार आकर उपस्थित होजाता है उससमय रस प्रिय नहीं रहते गोष्ठीमें जो कथाका कौतुहल रहता है वह भी नष्ट होजाता है विषय भी समस्त किनारा करजाते हैं शरीरमें प्रीति भी नहीं रहती और बाणी मौनको धारणकरलेती है और कोई प्रकार का दोषभी नहीं रहता तथा दोषोंके साथ मन भी सर्वथा नष्ट होजाता है ॥ १९ ॥
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