Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 495
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܬ ܐ ॥४८२॥ 100000000000000000000000000000000000000000000000..." पचनन्दिपश्चविंशतिका । अंतरंगमें शुद्ध ऐसे चैतन्यस्वरूपसे गुप्त मनको धारणकरनेवाले मुझसे समस्तपदार्थ पर हैं तथा उनसे मुझे किसीप्रकारका प्रयोजन नहीं है यही मुझे विचारना चाहिये ॥६॥ सदृग्बोधमयं विहाय परमानंदस्वरूपं परं ज्योतिर्वान्यदहं विचित्रविलसत्कमकतायामपि । काष्ण्र्ये कृष्णपदार्थसन्निधिवशाजाते मणौ स्फाटिके यत्तस्मात्पथगेव सदयकृतो लोके विकारो भवेत्॥७॥ अर्थः---नानाप्रकारके विद्यमान जो कर्म उनकी एकता होने परभी मैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान स्वरूप और परमानंद स्वरूप तथा उत्कृष्टतेजके धारी आत्माको छोड़कर भिन्न नहीं हूं अर्थात् आत्मस्वरूपही हूं क्योंकि काले पदार्थके संबन्धसे स्फटिकमणि के काले होनेपरभी वह कृष्णता उससे भिन्न ही है और विकार जो संसारमें होता है बह दो पदार्थोंद्वारा किया हुवाही होता है। भावार्थ:-जिसप्रकार अत्यंत निर्मल स्फटिकमणिके पास कोई चीज कालेवर्णकी रखदीजाये तो यद्यपि उसकाले पदार्थके मंबंधसे स्फटिकमाण काली होजाती है तोभी वह कालिमा उस स्काटकमणिसे भिन्न ही है उसका स्वरूप नहीं। किंतु उसका स्वच्छता आदिकही स्वरूप है उसीप्रकार यद्यपि कर्म तथा आत्मा नीरक्षीर के समान अभिन्न मालूम पड़ते हैं तो भी मैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानस्वरूप तथा परमानंदस्वरूप और उत्कृष्टतेजके धारी आत्मासे, भिन्न नहीं हूं किंतु उसआत्मस्वरूपही हूं ॥ ७ ॥ इसी आशयको लेकर समयसारमें भी कहा है। वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावा सर्व एवास्य पुंसः । तेनैवान्तस्तत्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाःस्यु दृष्टमेकं परं स्यात् ॥ ८॥ अर्थः-इसपुरुषके रूप, रस, गंध आदिक तथा राग, हेप मोह आदिक जितनेभर भाव हैं समस्तभिन्न ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܙܘ For Private And Personal

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