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॥४८३॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । हैं इसलिये जो पुरुष अंतरंग तत्त्वका देखनेवाला है उसके दृष्टिगोचर ये कोई भाव नहीं होते किंतु उसके दृष्टि गोचर वह प्रधान तेज ही होता है॥ ८ ॥ आपत्सापि यतेः परेण सह यः संगो भवेत् केनचित् सापत्सुष्ठु गरीयसी पुनरहो यः श्रीमतां संगमः। यत्तु श्रीमदमद्यपानविकलैरुत्तानितास्यैर्नृपः सम्पर्कः सुमुमुक्षुवेतसि सदा मृत्योरपि क्लेशकृत् ॥९॥
अर्थः-यतीका किसी दूसरे पदार्थके साथ जो संयोग होता है वह एकप्रकारकी आपत्ति है और उसी यतिका श्रीमानोंके साथ संगम होजावे तो बड़ीभारी आपत्ति है और जो पुरुष लक्ष्मीके मदरूपी मदिरासे मत्त होरहे हैं और जिनके मुख ऊंचेको हैं ऐसे राजाओं के साथ संबंध होजावे तो वह संवन्ध मोक्षाभिलाषीके चित्तमें मरणसे भी अधिक दुःखका देनेवाला है।
भावार्थ:-यह्वात अनुभव सिद्ध है कि मनुष्योंको जो कुछ कष्ट होते हैं वे परके संबंधही होते हैं और यतियोंका यतिपना तो परके संबंधसे रहित होनेसेही होता है क्योंकि यदि यतियों का सामान्यलोगोंके साथ भी संबंध होतो उनको दुःख भोगना पड़ता है और यदि उन्हीं यतीश्वरोंका श्रीमानमनुष्योंके साथ संबंध होजावे तो उनको घोर आपत्तिका सामना करना पड़ता है और जिसप्रकार मदिराके पानसे मनुष्य मत्त होजाता है और उन्नत मुख होजाता है उसीप्रकार जो राजा, लक्ष्मीका जो घमंड वही हुवा मद्य उसके पीनेसे मत्त हैं और जिनके मुख ऊपरको चढ़ेहुवे हैं ऐसे राजाओं के साथ उन मोक्षाभिलाषी यतियोंका संबंध होजावे तो उन यतियों के चित्तमें वह संबन्ध मरणसे अधिकभी वेदनाका करनेवाला होता है इसलिये जो मुनि मोक्षाभिलाषी हैं उनको संसारमें किसीके साथ संबन्ध नहीं रखना चाहिये किंतु अपने आत्मस्वरूपकाही चितवन करना चाहिये ॥९॥ स्निग्धा मा मुनयो भवंतु गृहिणो यच्छन्तु मा भोजनं मा किञ्चिद्धनमस्तुमा वपुरिदं रुग्वर्जितं जायताम् ।
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