Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 501
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४८॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । देखकर कुछभी चिन्ता नहीं करता उसीप्रकार सर्वशक्तिशाली यह आत्माभी ज्ञानावरणादिहारा नेत्रादि इन्द्रियोंको नष्ट मानता है तथा रूपादिसे रहितभी मानता है तो भी उनकी चिंता नहीं करता क्योंकि वह भलीभांति जानता है कि जो कुछ होनेवाला है वहतो नियमसे होताही है इसलिये वह समस्तजगतको नष्ठ ही सदा समझता रहता है ॥ १५ ॥ कर्मक्षत्युपशांतिकारणवशात्सद्देशनाया गुरोरात्मैकत्वविशुद्धबोधनिलयो निश्शेषसंगोज्झितः। शश्वत्तगतभावनाश्रितमना लोके वसन संयमी नावद्येन स लिप्यतेब्जदलवत्तोयेन पद्माकरे ॥१६॥ अर्थः---कौके क्षयसे तथा कर्मोंके उपशमसे अथवा गुरूके उत्तम उपवेशसे जो संयमी आत्माके एकखसे निर्मलज्ञानका स्थान है तथा समस्तप्रकारके परिग्रहोंसे रहित है और निरन्तर जिसका मन आत्मसम्बन्धी भावनाकर सहित है ऐसा वह संयमी संसारमें रहता हुवाभी जिसप्रकार सरोवरमें कमलका पत्ता जलसे लिप्त नहीं होता उसीप्रकार अंशमात्रभी पापोसे लिप्त नहीं होता। भावार्थः-चाहै कमलकापत्ता कितनेभी अगाधपानीमें क्यों न पड़ाहो तोभी वह जराभी पानीसे लिप्त नहीं होता उसीप्रकार जिस संयमीका मन काँके उपशमसे अथवा कर्मोंके सर्वथा क्षयसे वा गुरूके उत्तम उपदेशसे आत्माके एकत्वसम्बन्धी निर्मलज्ञानका धारक है और समस्तप्रकारकी परिग्रहोंसे रहित है और जिसका चित्त सदा आत्मसम्बन्धी एकल भावनाकरसहित है वह संयमी यद्यपि संसारमें भी मौजूद है तथापि समस्तप्रकारके पापोंसे अलिप्तही है अर्थात उसकी आत्माके साथ किसीप्रकारके कर्मों का सम्बन्ध नहीं ॥ १६ ॥ गुर्वघ्रिदयदत्तमुक्तिपदवीप्राप्त्यर्थनिग्रंथता जातानन्दवशान्ममैन्द्रियसुखं दुःखं मनो मन्यते । सुस्वादुःप्रतिभासते किल खलस्तावत्समासादितो यावन्नो सितशर्करातिमधुरा सन्तर्पिणी लभ्यते ॥१७॥ अर्थः-गुरूके जो दोनों चरण उनसे दी हुई जो मोक्षपदवी उसकी प्राप्तिके लिये जो निर्मथता उससे ॥४८ For Private And Personal ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀ y

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