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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
तथा अन्यपदार्थ मेरा कुछभी नहीं है और यही समीचीन तत्त्व है । अन्य जो क्रोधादिक तथा शरीर आदिक हैं वे समस्त कर्मोंसे उत्पन्न हुवे हैं इसलिये सैकड़ों शास्त्रोंको सुनकर मनमें यही सिद्धांत स्थित है ॥
भावार्थः — मैंने सैकड़ों शास्त्रों का अवलोकन किया है इसलिये मेरे मनमें यह सिद्धांत स्थिर होगया है कि जो जानता है वही देखता है और चैतन्यस्वरूपको नहीं छोड़ता है वह मैंही हूं और संसार में दूसरा कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है और ये जो क्रोध आदि तथा शरीर आदिक कार्य हैं वे समस्त कमाँसे पैदाहुवे हैं ॥५॥ हीनं संहननं परीषहसहं नाभूदिदं साम्प्रतं काले दुःखमसंज्ञकेऽत्र यदपि प्रायो न तीव्रं तपः । कश्चिन्नातिशयस्तथापि यदसावार्तं हि दुष्कर्मणामतः शुद्धचिदात्मगु तमनसः सर्व परं तेन किम् ॥६॥
अर्थः- दुःखम है नाम जिसका ऐसे इसपंचमकालमें संहनन हीन होता है इसीलिये इससमय वह संद्दन परीषद्दोंका सहनेवाला भी नहीं होता है और प्रायकर के तीव्र तपभी नहीं होसकता है तथा किसीप्रकार का अतिशयभी नहीं होता तो भी मैं दुष्कमोंसे पीड़ितहूं इसलिये अंतरंग में शुद्ध जो चैतन्य स्वरूप उससे गुप्त मनके धारी मुझसे समस्तपदार्थ पर हैं मुझे उन परपदार्थोंसे क्या प्रयोजन है ? ॥
भावार्थ:- जिससमय चतुर्थकालकी प्रवृत्ति थी उससमय संहनन उत्तम था और वह संहनन समस्तपरीषोंका सहन करनेवालाथा और उससमय घोर तप भी धारण किया जा सकता था तथा अनेकप्रकारके अतिशयभी प्रकट होते थे इसलिये उससमय दुष्कर्मों की पीड़ाका भय नहीं था किंतु इसपंचमकालमें न तो उत्तम सहन है और इसीलिये वह संहनन परीषहोंके सहन करनेमें समर्थ नहीं । और इसकालमें घोरतपभी धारण नहीं कियाजाता है तथा किसीप्रकारका अतिशय भी प्रकट नहीं होता और दुष्कर्म दुःख वरावर देते ही हैं इसलिये क, पुस्तक" कार्यादिवा " यह भी हैं ।
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।।४८१ ।।