Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 492
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४७९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्म नन्दिपञ्चविंशतिका । सुना है और इनका अनुभवभी किया है किंतु अभी तक कर्मोंसे रहित आत्माका अनुभव आदिक नहीं किया है। इसलिये दुर्लक्ष्य कठिनरीति से देखने योग्य तथा एक उत्कृष्ट और मोक्षरूपी वृक्षका बीज तथा जिसकी भव्य जीव सदा स्तुति करते रहते हैं ऐसा वह आत्माका अद्वैत (कर्म रहित आत्मा) सदा इसलोकमें जयवंत है १ । अंतर्बाह्यविकल्पजालरहिता शुद्धैकचिद्रूपिणीं बन्दे तां परमात्मनः प्रणयिनीं कृत्यान्तगां स्वस्थाताम् । यत्रानंतचतुष्टयामृतसरित्यात्मानमन्तर्गतं न प्राप्नोति जरादिदुस्सहशिखो जन्मोग्रदावानलः ॥२॥ अर्थः-जो स्वस्थता अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकारके विकल्पोंकर रहित है तथा शुद्ध एक चैतन्य स्वरूपको धारण करने वाली है और परमात्मासे प्रीति कराने वाली है तथा कृतकृत्य है ऐसी उस स्वस्थता को नमस्कार करता हूं क्योंकि जिस अनंतावज्ञानादि चतुष्टय स्वस्थातारूपी अमृतनदीके मध्य में रहे हुवे आत्मा को वृद्धावस्था आदि दुस्सह ज्वालाओंको धारण करनेवाली जन्मरूपी भयंकर अग्नि प्राप्त ही नहीं हो सकती भावार्थः - जिसप्रकार उत्तम जलसे भरी हुई नदीके भीतर स्थित पदार्थका भयंकर ज्वाला को धारण करने वाली भयंकरभी अभि कुछभी नहीं करसकती उसीप्रकार जिस अनंतचतुष्टयस्वरूपी नदीके मध्य में प्रविष्ट आत्माका जग आदि दुस्सह ज्वालाओंको धारण करनेवाली भी भयंकर जन्मरूपी अग्नि कुछ भी नहीं कर सकती अर्थात् जिस स्वस्थताकी (आत्मखरूपके अनुभवपनेकी) प्राप्तिसे आत्मा जन्म मरण आदिकर रहित होजाता है और जो शुद्ध, एक, चैतन्यस्वरूपको धारणकरनेवाली है तथा परमात्मासे स्नेह करानेवाली तथा कृत कृत्य है ऐसी उसस्वस्थताको मैं नमस्कार करताहूं ॥ २ ॥ एकत्वस्थितये मतिर्यदनिशं संजायते मे तयाप्यानंदः परमात्मसंन्निधिगतः किञ्चित्समुन्मीलति । कंचित्कालमवाप्य सैव सकलैः शीलैर्गुणैराश्रिता तामानंदकलां विशालविलसद्वोघां करिष्यत्यसौ ॥३॥ For Private And Personal ॥४७९॥

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