Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 486
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४७३ ००००००००००००००००००००००००००००0000000000000000000000000000 पअनन्दिपश्चविंशतिका। अथैकत्वभवानादशकम् । अनुष्टुप् । स्वानुभूत्यैव यद्गम्यं रम्यं यचात्मवदिनाम् । जल्पे तत्परमज्योतिरवाङ्मानसगोचरम् ॥ १ ॥ अर्थः-जो परमतेज स्वानुभवसेही जानाजाता है और जोपुरुष आत्मस्वरूपके जाननेवाले हैं उनको मनोहर मालूम पड़ता हैं और जो तेज न वचनके गोचर हैं और न मनका विषयभूत है उस परमतेजका मैं वर्णन करता हूं। भावार्थ:-परमज्योतिसे यहाँपर आत्मरूपीतेज लियागया है वह आत्मरूपीतेज अमृत है (चैतन्यस्वरूपहै) इसलिये न तो मूर्तवाणीके गोचर हैं और न मनके गोचर है और जो आत्मस्वरूपके जाननेवालोंको अत्यंतमनोहर मालूम पड़ता है तथा जो स्वानुभवप्तेही गम्य है ऐसे उसतेजको मैं वर्णन करताहूं ॥ १ ॥ एकत्वैकपदप्राप्तमात्मतत्वमवैति यः । आराध्यते स एवान्येस्तस्याराध्यो न विद्यते ॥२॥ अर्थः-जो भव्यजीव एकत्वस्वरुपको प्राप्त एसे आत्मतत्वको जानता है उस पुरुषकी अन्य लोग पूजा आराधना करते हैं किन्तु उसका आराध्य कोई नहीं अर्थात् वह किसी को नहीं पूजता ॥ २ ॥ एकत्वज्ञो बहुभ्योऽपि कर्मभ्यो न विभेति सः योगी सुनोगतोऽम्भोधिजलेभ्य इव धीरधीः ॥३॥ अर्थ-जिसप्रकार धीरबुद्धिपुरुष उत्तमनावमें बैठा हुवा समुद्रके जलसे भय नहीं करता है उसीप्रकार ००००००००००००००००००००००००००000000000000000000000000000 ॥४७३॥ For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527