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॥४७॥
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पचनन्दिपश्चावंशतिका।
___ अनुष्टुप् । पल्लवोयं क्रियाकांडकल्पशाखाग्रसंगतः।
जीयादशेषभव्यानां प्रार्थितार्थिफलप्रदः ॥१५॥ अर्थः-समस्त भव्यजीवोंको अभिलषितफलोंका देनेवाला ऐसा यह कियाकांडरूपी कल्पवृक्षका शाखामें लगाहुवा कियाकांडचूलिकाधिकाररूपी जो पल्लव है वह सदा इसलोकमें जयवंत रहो।
भावार्थ:-जिसप्रकार कल्पवृक्षकी शाखाके अग्रभागमें लगाहुवा पल्लव जीवोंको अभीष्टफलोंका देनेवाला होता है उसीप्रकार यह कियाकांडरूपी कल्पवृक्षकी शाखापर लगाहुवा कियाकांडचूलिका नामक अधिकाररूपीपल्ल भी भब्यजीवोंको अभीष्टफलका देनेवाला है इसलिये ऐसा वह पद्धव सदा इसलोकमें जयवंत रहो ॥ १५॥
भुजंगमयाब। क्रियाकांडसंबंधिनी चूलिकेयं नरैः पठ्यते यैत्रिसन्ध्यं च तेषाम् ।
वपुर्भारती चित्तवैकल्यतो या न पूर्णा क्रिया सापि पूर्णत्वमेति ॥१६॥ अर्थ:-जो भव्यजीव इसक्रियाकांड संबंधिनी चूलिकाको तीनोंकाल (प्रातःकाल, मध्यान्हकाल, तथा सायंकाल,) पढ़ता है तथा पढ़ेगा उसभव्यजीवकी जो क्रिया मन वचन कायकी विकलतासे पूर्णनहीं हुई है वह शीघ्रही पूर्ण होजाती है ॥ १६ ॥
पृथ्वी । जिनेश्वर नमोस्तु ते त्रिभुवनैकचूड़ामणे गतोऽस्मि शरणं विभो भवभिया भवंतं प्रति । तदाहतिकृते वुधेरकथि तत्वमेतन्मया श्रितं सुदृढ़चेतसा भवहरस्त्वमेवात्र यत् ॥१७॥
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