Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 487
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४७४॥ 20000००००००००००००0000000000000000००००००००००००००००००००००० पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । जो योगी एकखस्वरूपका जाननेवाला है वह बहतभी कमासे अंशमात्रभी भय नहीं करता है ॥ ३ ॥ चैतन्यैकत्वसंवित्तिदुर्लभो सैव मोक्षदा । लब्धा कथं कथञ्चिच्चर्चितनीया मुहुर्मुहुः ॥४॥ अथेः-चैतन्यके एकलका जो ज्ञान है वह अत्यंत दुर्लभ है और वह ज्ञानही मोक्षका देने वाला है इसलिये यदि किसी रीतिसे उसचैतन्यका ज्ञान होजावे तो वारंवार उस ज्ञानका चितवन करना चाहिये ।। भावार्थ:-जिससमय आत्मा समस्तकमाके संबंधसे रहित एक है इसप्रकार आत्मामें एकलका ज्ञान होता है उसीसमय मोक्षकी प्राप्ति होती है क्योंकि मोक्षका कारण चैतन्यके एकत्वका ज्ञानही है किंतु इस चैतन्यके एकलका ज्ञान होता बडी कठिनतासे है। यदि भाग्यवश चैतन्यके एकलका ज्ञान होभी जाय तो विहानोंको ( मोक्षकी प्राप्तिके अभिलाषियों को) चाहिये कि वे वारंवार इसका चितवनकरें किंतु उसके चितवनकरने में प्रमाद न करें ॥ ४॥ इसी आशयको लेकर समयसारमें भी कहा है। सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्सवि कामभोगवंधकहा एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विभत्तस्य ॥ ५ ॥ अर्थः-जितनेभर जीव संसारमें मौजूद हैं उनसबने प्रायः काम भोग संबंधी कथातो सुनी है तथा उसका परिचय और अनुभवभी किया है इसलिये कामभोगसंबंधी कथा उनकेलिये सुलभ है किंतु एकल और विभक्त आत्माका उनको कभीभी ज्ञान नहीं हुवा है इसलिये केवल उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं है इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे एकख और विभक्त आत्माकी प्राप्तिकेलिये उद्योग करें ॥ ५॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ४४॥ For Private And Personal

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