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॥४४॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
पार्श्वनाथभगवानकी स्तुति । यदूर्ध्वदेशे नभसि क्षणादहिप्रभोः फणारत्नकरैः प्रधावितम्
पदातिभिर्वा कमठाहते कृते करोतु पार्श्वः स जिनो ममामृतम् ।। अर्थः-जिसपार्श्वनाथभगवानके मस्तकपर आकाशमें कमठासुरके मारनेकेलिये शेषनागके फणोंमें लगेहुए जो रत्न उनकी किरणें, पदाति (सेना) के समान धावाकरीहुई वे पार्श्वनाथभगवान मेरोलिये मोक्षको दो।
भावार्थ-किसीसमय भगवान ध्यानमें अत्यंत लीन होकर वनमें विराजमान थे उससमय उनके पूर्व भवका वैरी कमठासुर आकाशमार्गसे चलाजारहा था जिससमय उसका विमान इनके मस्तकपर आया तो आगे चलाही नहीं क्योंकि तीर्थकर आदि महात्माओंके ऊपरसे किसीका विमान नहीं जाता। तब वह नीचे उतरा और भगवानको देखते ही उसको पूर्वभवका स्मरण हो गया वस फिर क्या था ! भगवानको ध्यानसे चलाय मान करनेकेलिये उसने वहुतसे उपाय सोचे और किये परंतु भगवानके सामने वे सब निष्फलही हुवे अंत में उसने मेघ वर्षाये तथा ओले गिराये और प्रचंड पवन चलाई उससमय धरणेंद्र और पद्मावतीने भगवानका उपसर्ग निवारणकिया क्योंकि धरणेंद्रने भगवानके मस्तकपर अपना फणा फैलाकर मेघका निवारण किया तथा पद्मावतीने आसन बनकर भगवानके उपसर्गको निवारण किया उसीवातको अपनेमनमें धारणकर ग्रंथकार उत्प्रेक्षाकरते हैं कि पार्श्वनाथ भगवानके मस्तकपर शेषनागके फणों के रत्नोंके किरण जहातहां नहीं - फैल रहे हैं किंतु वे कमठके मारनेकेलिये सेनाही है अतः ऐसे पार्श्वनाथ भगवान मुझे मुक्ति प्रदान करें ॥२३॥
वर्धमानभगवानकी स्तुति ॥ त्रिलोकलोकेश्वरतां गतोपि यः स्वकीयकायेऽपि तथापि निस्पृहः । स वर्धमानोंऽत्यजिनो नताय मे ददातु मोक्षं मुनिपद्मनंदिने ।
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