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॥४५३॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
जिस श्री शांतिनाथ भगवान से प्रकट हुई है ऐसे वे समस्तपापोंकर रहित श्री शांतिनाथ भगवान हमारी रक्षा करें । भावार्थः — जिसप्रकार गंगानदी अत्यंत लंबी चौड़ी है और जिसका पार नहीं ऐसे प्रवाहसे उज्वल है तथा जिसकी याचकगण सेवा करते हैं और जो अत्यंत शीतल है तथा जिसकी बड़े २ देव स्तुति करते हैं और जो समस्त जगतको पवित्र करनेवाली है तथा अत्यंत उन्नत ऐसे हिमालय पर्वतसे प्रकट हुई है उसीप्रकार सरस्वती भी है क्योंकि यहभी अत्यंत विस्तीर्ण है तथा समस्ततत्वोंका जो कथन वही हुवा प्रवाह उस से अत्यंत निर्मल है। इसके भक्तलोग इसकी भी सेवाकरते हैं और यह अत्यंत शीतल है और इसकी बड़े २ देव स्तुतिकरते हैं तथा समस्तजगतको पवित्र करनेवाली है और अत्यंत उन्नत श्रीशांतिनाथ हिमालय से उत्पन्न हुई है इसलिये जिनसे इसप्रकार गंगानदीके समान सरस्वती उत्पन्न हुई है ऐसे वे समस्त पापकर रहित श्री शांतिनाथ भगवान हमारी रक्षाकरो ॥ ७ ॥
लीलोबेल्लितबाहुकंकणरणत्कारप्रहृष्टैः सुरैश्चंचचन्द्रमरीचिसंचयसमाकारैश्चलञ्चामरैः ।
नित्यं यः परिवीज्यते त्रिजगतां नाथस्तथाप्यस्पृहः सोऽस्मान्पातु निरंजनो जिनपतिः श्रीशांतिनाथः सदा
अर्थः- जिस शांतिनाथ भगवानके ऊपर लीलासे कंपित जो भुजा उनमें पहिनेहुवे जो कंकण उनकाजो रणत्कार शब्द उनसे अत्यंत हर्षित ऐसे देव, देदीप्यमान जो चन्द्रमा उसकी जो किरणें उनका जो समूह उसके समान रूपको धारण करनेवाले चंचल चमरोंको ढोरते हैं और जो तीनोंलोकके नाथ हैं तोभी जो निरीह है अर्थात् समस्तपदार्थों में इच्छाकर रहित हैं ऐसे वे समस्तपापोंकररहित श्री शांतिनाथ भगवान हमारी रक्षाकरो अर्थात् ऐसे श्रीशांतिनाथ भगवानके नमस्कार है ॥
सदा
भावार्थ:-जिन श्रीशांतिनाथ भनवानके ऊपर समस्त आभूषणोंकर सहित देवेन्द्र, चंद्रमा की किरणों के
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