Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 477
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४६४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनान्देपश्चविंशतिका । नहीं दीखता उसका कारण यही मालूम पड़ता है कि समस्तगुणोंने पहलेसे ही आपस में सलाहकर आपको स्थान वनालिया और पीछे उनके विरोधी जो दोष हैं उन्होंने आपमें स्थानको नहीं पाया तव उनदोषों को इसवातका अभिमान उत्पन्न हुआ कि हम समस्त संसारमें फैलेहुवे हैं और समस्त संसारके ग्रहणकरने योग्य हैं यदि एक केवल जिनेन्द्र में हमको आश्रय नहीं मिला और उन्होंने हमको ग्रहण नहीं किया तो हमारा कोई भी नुक्सान नहीं इसीलिये इसप्रकारके अभिमानसे आपको उन्होंने सर्वथा छोड़दिया ॥ १ ॥ बसतैतिलका । यस्त्वामनंतगुणमेकभुवं त्रिलोक्याः स्तौति प्रभूतकवितागुणगर्वितात्मा । आरोहति द्रुमशिरः स नरो नभोंऽतं गन्तुं जिनेन्द्र मतिविभ्रतो बुधोऽपि ॥ २ ॥ अर्थः—हे जिनेन्द्र आपतो अनन्तेगुणों के भंडार हैं और तीनोंलोकके एकस्वामी हैं ऐसा समझकर भी यदि प्रचुर जो कविताका गुण उससे जिसकी आत्मा अत्यंत गर्वकर सहित है अर्थात् जो कविताचातुर्यका बड़ाभारी अभिमानी है ऐसा कोई मनुष्य आपकी स्तुति करे तो समझलेना चाहिये कि वह वुद्धिमान भी मनुष्य अपनी बुद्धिके भ्रमसे ( मूर्खतासे ) आकाशके अंतको प्राप्तहोने केलिये वृक्षकी चोटीपर चढ़ता है ऐसा निस्संदेह मालूम होता है ॥ भावार्थः आकाश अनंत है तथा सवजगहपर व्याप्त है इसलिये सैकड़ों वृक्षोंकी चोटीपर चढ़नेसेभी जिसप्रकार उसका अंत नहीं मिलसकता उसीप्रकार हेजिनेन्द्र आप भी अनंते गुणोंके भंडार हैं और समस्त जगतके स्वामी हैं इसलिये आपका स्तवन करना भी अत्यंत कठिन है यदि कोई मनुष्य अपनी कवित्वशक्तिका अभिमान रखकर आपकी स्तुति करना चाहै तो वह वुद्धिमान होनेपर भी सर्वथा मूर्ख है ऐसा समझना चाहिये ॥ For Private And Personal ॥४६४॥

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