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॥४६३॥
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पद्मनन्दिपश्वविंशतिका ।
जगदेकशरण भगवन्नसम श्रीपद्मनन्दितगुणौध ।
किं बहुना कुरु करुणामत्र जने शरणमापन्ने ॥ ८ ॥
अर्थः- हे समस्त जगत के एकशरण, हे भगवन् आपसे अतिरिक्त जनोंमें नहीं पायेजांय ऐसे श्रीपद्मनंदि नामक आचार्यद्वारा गानकिये गुणों के समूहको धारणकरनेवाले हे जिनेश हे प्रभो अब मैं विशेष कहांतक कहूं बस यही प्रार्थना है कि इस शरणमें आयेहुवे जनपर अर्थात् मुझपर आप इससंसारमें दया करें ॥ ८ ॥ इति श्रीपद्मनन्दि आचार्यद्वाराविरचित श्रीपद्मनन्दिपञ्चविंशतिकामें करुणाष्टकनामक अधिकार समाप्त हुआ ।
क्रियाकांडचूलिकाधिकारः । शार्दूलविक्रीड़ित ।
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तशमताशीलक्षमाद्यैर्धनैः संकेताश्रयवज्जिनेश्वर भवान् सर्वैर्गुणैराश्रितः । मन्ये त्वय्यवकाशलान्धिरहितैः सर्वेऽत्र लोके वयं संग्राह्या इति गर्वितैः परिहृतो दोषैरशेषैरपि ॥१॥
अर्थः- हे प्रभो हे जिंनश निविड जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, शमता, शील और क्षमा आदिक समस्त गुण हैं उन्होंने संकेतके घरके समान आपका आश्रय किया है इसीलिये आपमें जिन्हेंनो स्थानको नहीं पाया है और जो समस्त लोकमें हम संग्राह्य ( ग्रहणकरने योग्य ) हैं इसप्रकार के अभिमानकर संयुक्त हैं ऐसे समस्तदोषोंने, आपको छोड़दिया है ऐसा मालूम होता है ॥
भावार्थ:-प्रथकार कहते हैं कि हे जिनेन्द्र आपमें जो समस्त गुणही गुण दीखते हैं और दोष एक
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