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॥४६॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । निर्विण्णोहं नितरामर्हन बहदुःखया भवस्थित्या।
अपुनर्भवाय भवहर कुरु करुणामत्र मयि दीने ॥ २॥ अर्थः-हे समस्तघातियाकर्मीको जीतनेवाले अर्हतभगवान, अनेकप्रकारके दुःखोंको देनेवाली ऐसी जो संसारकी स्थिति है उससे मैं सर्वथा खिन्न हूं इसलिये हे संसारके नाशकरनेवाले जिनेन्द्र इससंसारमें मुझ दीनपर ऐसी दया कीजिये जिससे मुझे फिरसे जन्म न धारण करनापड़े अर्थात् मैं मुक्त होजाऊं ॥ २ ॥
उद्धर मां पतितमतो विषमाद्भवकूपतः कृपां कृत्वा ।
अहंन्नलमुद्धरणे त्वमसीतिं पुनः पुनर्वच्मि ॥३॥ अर्थः-हे प्रभो मैं इसभयंकर संसाररूपी कूवमें पडाहवा हूं इसलिये मेरे ऊपर दयाकरके मुझे इससंसाररूपी भयंकर कूवेसे बाहिर निकालिये क्योंकि हे अर्हन हे भगवन् इसकूपसे मुझे निकालने में आपही समर्थ हैं ऐसा मैं फिर २ से आपकी सेवामे निवेदन करता हूं ॥ ३ ॥
त्वं कारुणिकः स्वामी त्वमेव शरणं जिनेश तेनाहम् ।
मोहरिपुदलितमानः पूत्कारं तव पुरः कुरुते ॥४॥ अर्थः--हे जिनेश हे प्रभो यदि संसारमें दयावान हैं तो आपही हैं और भव्यजीवोंके शरण हैं तो आप ही हैं इसलिये मोहरूपीबैरीने जिसका मान (अभिमान) नष्टकरदिया है ऐसा मैं आपके सामनेही पूत्कारको करता हूं अर्थात् फुका मार २ कर रोता हूं ॥ ४ ॥
ग्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्युपद्रुते पुंसि । जगतां प्रभो न किं तव जिन मयि खलकर्मभिः प्रहते ॥ ५ ॥
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