Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 472
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Anu 000०.०००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपञ्चविंशतिका । उच्चैः फलाय परमामृतसंज्ञकाय नानाफलैर्जिनपतिं परिपूजयामि । तद्भक्तिरेव सकलानि फलानि दत्ते मोहेन तत्तदपि याचत एव लोकः ॥८॥ अर्थः-सवसे ऊंचे तथा उत्तम अमृत है संज्ञा जिसकी ऐसे उस फलकेलिये अर्थात मोक्षफलकेलिये मैं श्रीजिनेन्द्रभगवानकी भांतिभांतिके अनेक प्रकारके फलोंसे पूजा करताहूं यद्यपि श्रीजिनन्द्रभगबानकी भक्तिही समस्त फलोंको देनेवाली है तोभी लोक मोहसे फलोंकी याचना करताही है। भावार्थः-यद्यपि भगवानकी भक्तिमें ही यह सामर्थ्य है कि जो मनुष्य भगवानकी भक्तिको करता है उसको उत्तमोत्तम समस्तप्रकारके फलोंकी प्राप्ति होती है तो भी मनुष्य मोहके बशहोकर फलोंकी याचना । करता है उसीप्रकार मुझे भक्ति करनेसे अविनाशी सुखके भंडार मोक्षरूपी सुख की प्राप्ति होसकती है तोभी मैं मोहके बशहोकर उसमोक्षरूप फलकी प्राप्ति के लिये श्रीजिनेन्द्रभगवानकी नानाप्रकारके फलोंको चढ़ाकर पूजाकरताहूँ ॥ ८ ॥ फलम् ॥ ___ पूजाविधिं विधिवदत्र विधाय देवे स्तोत्रं च संमदरसाश्रितचित्तवृत्तिः । पुष्पाञ्जलिं विमलकेवललोचनाय यच्छामि सर्वजनशांतिकराय तस्मै ॥९॥ अर्थ:-श्रेष्ट जो हर्ष वहीहुवा रस उससे आश्रित है चित्तकी वृत्ति जिसकी ऐसा मैं (पूजक) शास्त्रानुसार भगवानकी भलीभांति पूजाको करके तथा भलीभांति स्तोत्रको भी पढ़करके निर्मल केवल ज्ञानरूपीनेत्रके धारण करनेवाले और समस्तजीवोंको शांतिके देनेवाले उनश्री जिनेन्द्रभगवानके लिये पुष्पोंकी अंजलिको समर्पण करता हूं ॥ ९ ॥ पुष्पांजलिः ॥ श्रीपद्मनंदितगुणोध न कार्यमस्ति पूजादिना यदपि ते कृतकृत्यतायाः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀. X४५९॥ For Private And Personal

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