Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 471
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४५८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । आरार्तिकं तरलबन्हिशिखं विभाति स्वच्छे जिनस्य वपुषि प्रतिविम्बितं सत् । ध्यानानलो मृगयमाण इवावशिष्टं दग्धुं परिभ्रमति कर्मचयं प्रचंडः ॥ ६ ॥ भावार्थः — चंचल है अग्निकी शिखा जिसमें ऐसी तथा श्रीजिनेन्द्र भगवान के स्वच्छारीरमें प्रतिविम्बित हुई आरती ऐसी मालूम होती है मानो प्रचंडध्यानरूपी अग्नि, बचेहुवे कर्मोंको भस्मकरने कोलिये जहांतहां ढूंढती हुई भ्रमण करती है । भावार्थः — उन्नत शिखाको धारण करनेवाली जो आरती की ज्वाला भगवान के शरीर में प्रतिविम्बित है वह आरती की ज्वाला नहीं है किंतु भगवानकी ध्यानरूपी अग्नि है तथा वह वचेहुवे समस्त को नाश करने केलिये ढूंढ़ती फिरती है ऐसी मालूम होती है ॥ ६ ॥ अघातिया कर्मों कस्तूरिका रसमयीरिव पत्रवल्लीः कुर्वन मुखेषु चलनैरिव दिग्वधूनाम् । हर्षादिव प्रभुजिनाश्रयणेन वातप्रेङ्खदपुर्नटति पश्यत धूपधूम्रम् ॥ ७ ॥ अर्थः — दिशारूपी स्त्रियोंक मुखमें कस्तूरीकेरससे बनाई हुईं पत्ररचनाके समान पत्ररचनाको करताहुवा प्रभू श्रीजिनेन्द्रभगवान के आश्रयसे, पचनसे कम्पित है शरीर जिसका ऐसा धूपका धूत्रां, हर्षसे मानों नृत्यही कररहा है ऐसा मालूम होता है । भावार्थ:-धूपका धूवां सवजगहपर फैल रहा है इससे तो यह मालूम पड़ता है मानोंवह दिशारूपी स्त्रियोंके मुखोंपर कस्तूरी केरससे रची हुई पत्ररचनाके समान पत्ररचनाको कररहाहो क्योंकि कस्तूरी के रसका रंग तथा धूत्रका रंग एकसाही होता है तथा निकलते समय पत्रन से कंपित होता है उससे ऐसा मालूम पड़ता है कि वह मानो श्रीजिनेन्द्र के आश्रय के करनेसे हर्षसे नृत्यही कररहा हो || ७ || धूपम् ॥ For Private And Personal ४ ॥४५॥

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