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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । वहांपर शोभाको प्राप्त होती है किंतु जो चीज जहांपर होती है वह वहांपर मनोहर नहीं समझीजाती और वह वहांपर शोभाको भी प्राप्त नहीं होती । श्रीजिनेन्द्रसे भिन्न जितनेभर देव हैं उनसबके पास पुष्पशर हैं अर्थात् वे सव “मदन सहित " है इसलिये उनकी पुष्पोंकी मालाओंसे में पूजन नहीं करता क्योंकि उनके चरणों में चढ़ाई हुई फूलोंकी माला न मनोहरही समझी जासकती हैं और न वहांपर शोभाको ही प्राप्त होसकती हैं। किंतु श्री जिनेन्द्रभगवान पुष्पशररहित (मदनरहित) हैं इसलिये उनके चरणकमलोंमें चढ़ाईहई फूलोंकी माला मनोहर होती हैं तथा शोभाको भी प्राप्त होसक्ती हैं इसलिये श्रीजिनेन्द्रदेवका, ही मैं फूलोंकी मालाओंसे पूजन करताहूं ॥४॥ पुष्पम् ॥
देवोयमिन्द्रियवलं प्रलयं करोति नैवेद्यमिन्द्रियवलप्रदखाद्यमेतत् ।
चित्रं तथापि पुरतः स्थितमहतोऽस्य शोभां विभर्ति जगतो नयनोत्सवाय ॥ ५ ॥ अर्थः-यह श्रीजिनेन्द्रदेवतो समस्त इन्द्रियोंके वलको नष्टकरता है और यह नैवेद्य इन्द्रियों के वलको वढ़ानेवाला है तथा खानेयोग्य है तोभी श्रीअर्हतभगवानके सामने चढ़ायाहुवा यह नैवेद्य समस्त जगतके नेत्रों के उत्सवके लिये शोभाको धारण करता है यह आश्चर्य है।
भावार्थः-संसारमें यह देखने में आता है कि जो पुरुष जिसव्यसनका विरोधी होताहै यदि वह व्यसनोंको उत्पन्नकरनेवाली वस्तु उसके सामने रखदी जावे तो उसवस्तुको देखकर वह मनुष्य अवश्यही विकृत होजाता है कि भगवानमें यह आश्चर्य है कि नैवेद्य भगवानके सामने रक्खा हुवा भी भगवानको विकृत नहीं करता क्यों कि नैवेद्य इन्द्रियोंके वलको वढ़ानेवाला है तथा सुस्वादु है और भगवान समस्त इन्द्रियों के बलको प्रलयकरनेवाले हैं इसलिये ऐसा नैवेद्य भगवानके सामने रक्खा हुवा लोगोंके नेत्रोंको उत्सवका करनेवाला है॥ ५ ॥
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