Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 473
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana pra www.kcbatirth.org Acharya Shri Krishnagarsuri Gyanmandir ॥४६॥ पचनन्दिपश्चविंशतिका । स्वश्रेयसे तदपि तत्कुरुते जनोऽर्हन् कार्या कृषिः फलकृते नतु भूपकृत्यै ॥१०॥ अर्थः-श्री पद्मनंदि आचार्यद्वारा गान कियागया है गुणोंका समूह जिनका ऐसे हेअईन हे वीतराग यद्यपि आप कृतकृत्य हैं इसलिये उस कृतकृत्यपनेरूपहेतुसे आपको पूजा आदिकसे कुछभी कार्य नहीं है तोभी लोक अपने कल्याणकेलिये ही आपकी पूजाकरता है क्योंकि खेती अपने कल्याणों की प्राप्तिकेलिये ही की जाती है किंतु राजाके कामकेलिये नहीं की जाती ॥ भावार्थ:-जिसप्रकार किसानलोग खेतीको अपने ही कल्याणों केलिये करते हैं राजाके कल्याणोंकेलिये नहीं उसीप्रकार हे समस्तगुणोंके भंडार श्री जिनेन्द्रदेव जो मनुष्य आपकी पूजाकरते हैं वे अपने कल्याणोंकेलिये ही करते हैं आपके लिये नहीं करते क्योंकि आप समस्तकोंको करचुके हैं इसलिये कृतकृत्य है अतः आपको पूजन आदि कार्यसे किसीप्रकारका कोई भी प्रयोजन नहीं है ॥ १० ॥ इसप्रकार श्रीपदानंदिआचार्यद्वारा विरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिकामें पूजाष्टकनामक अधिकार समाप्तहुवा ।। ..............................००००००००००००००००००० ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ अथ करुणाष्टकम् । त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानंदैककारण कुरुष्व । मयि किंकरे त्र करणां यथा तथा जायते मुक्तिः ॥१॥ अर्थः--हे तीनों लोकोकेगुरु, हे कर्मों के जीतनेवाले महात्माओंके स्वामी, और हे उत्कृष्ट मोक्षरूपी आनंदकेदेनेवाले जिनेन्द्र मुझदासपर ऐसीदया कीजिये जिससे कि मेरी मोक्ष होजावे अर्थात समस्तपापकर्मोंसे मैं सर्वथा छुटजाऊं ॥१॥ का॥४६॥ For Private And Personal

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