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॥४१४॥
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पचनन्दिपश्चविंशतिका। | समान निर्मल चमरोंको ढोरते हैं और जो तीनोंलोकके नाथ हैं तोभी जिन भगवानकी किसी पदार्थमें इच्छा
नहीं है ऐसे वे समस्तप्रकारके पातकोंकर रहित श्री शांतिनाथ भगवान सदा हमारी रक्षाकरो ॥ ८ ॥ निश्शेषश्रुतबोधवृद्धमतिभिः प्राज्यैरुदारैरपि स्तोत्रैर्यस्य गुणार्णवस्य हरिभिः पारो नहि प्राप्यते । भव्यांभोरुहनदिकेवलरविर्भक्त्या मयापि स्तुतः सोऽस्मानपातु निरंजनो जिनपतिःश्रीशांतिनाथःसदा
अर्थः-समस्तशास्त्रोंके ज्ञानसे जिनकी बुद्धियां अत्यंत विशाल हैं ऐसे इन्द्र भी अत्यंत उत्कृष्ट तथा बडे २ स्तोत्रोंसें जिम श्रीशांतिनाथके गुणरूपी समुद्रका पार नहीं पासकते ऐसे उन भव्यरूपी कमलोंको अथवा भव्यपद्मनंदीको आनंदके करनेवाले केवलज्ञानरूपीसूर्यके धारी श्रीशांतिनाथभगवानकी मैने स्तुतिकी है इसलिये समस्तपापोंकर रहित श्रीशांतिनाथभगवान हमारी रक्षाकरो ॥९॥ इसप्रकार श्रीपानविआचार्यद्वारा विरचित श्रीपद्मनंदि पंचविंशतिकामें
शाल्यष्टकस्तोत्र समाप्तहुआ। जिनपूजाष्टकं।
वसन्ततिकका। जातिर्जरामरणमित्यनलत्रयस्य जीवाश्रितस्य बहुतापकृतो यथावत् ।
विध्यापनाय जिनपादयुगाप्रभूमौ धारात्रयं प्रवरवारिकृतं क्षिपामि ॥१॥ अर्थ:-जीवोंके आधित अर्थात् जीवोंमें होनेवाली तथा अत्यंत संतापको देनेवाली ऐसी जम्म जरा और मरण ये तीनप्रकारकी अनी हैं उन तीनोंप्रकारकी अग्नियोको यथावत् बुझानेकेलिये श्रीजिनेन्द्रभगवानके
क. पुस्तकम वृद्धिमतिभि:-यह भी पाठ है।
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