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॥४४६॥
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पयनन्दिपश्चविंशतिका । परभी समस्त पापरूपी चोर सर्वथा नष्ट होजाते हैं तथा मनरूपी चद्रमा भी मलिन तथा फीका पड़जाता है अर्थात् मनका व्यापार सर्वथा नष्ट होजाता है और अनीतिरूपी मार्गके सर्वथा नाश होजानेकेकारण समस्त दिशायें निर्मल होजाती हैं ( अर्थात् भगवानके सुप्रभातके प्रकाशमान होनेपर मिथ्यामार्गकी प्रवृति नष्ट होजाती है और उत्तममार्गकी प्रवृत्ति, होती है। और जो जिनेन्द्रभगवानका सुप्रभात उत्कृष्ट है तथा सदाकाल रहनेवाला है और समस्तभव्यजीवोंका वंद्य (स्तुतिके करने योग्य ) है ॥ ५ ॥ मार्ग यत्प्रकटीकरोति हरते दोषानुषंगस्थितिं लोकानां विदधाति दृष्टिमचिरादर्थावलोकक्षमाम् । कामासक्तघियामपि कृशयति प्रीतिं प्रियायामिति प्रातस्तुल्यतयापि कोऽपि महिमापूर्वः प्रभातोऽहर्ताम्
अर्थ:-जो अंहतभगवानका सुप्रभात मार्गको प्रकट करता है और समस्त दोषों के संगसे होनेवाली । स्थितिको नष्ट करता है तथा लोगोंकी दृष्टियोंको शीघही पदार्थों के देखने में समर्थ बनाता है और जिनमनुष्योंकी बुद्धि काम में आसक्त हैं अर्थात् जोपुरुष कामीहैं उनकी स्त्री विषयक प्रीतिको नष्ट करता है इसलिये यद्यपि अर्हतदेवका प्रभात प्रातःकालके समान मालूम पड़ता है तोभी यह प्रातःकालसे वचनागोचर अपूर्व महिमाकाधारी है ऐसा जान पड़ता है।
भावार्थः-यद्यपि शब्दसे प्रातःकाल तथा जिनेन्द्रका सुप्रभात समानही प्रतीत होते हैं तोभी प्रातःकालकी (सुवहकी ) अपेक्षा अर्हतभगवानके सुप्रभातकी महिमा अपूर्वही है क्योंकि प्रातःकालतो मनुष्योंके चलने के लिये सड़क आदिमार्गको प्रकट करता है किंतु भगवानका सुप्रभात सम्यग्दर्शनादि स्वरूप मोक्षके मार्गको प्रकट करता है तथा प्रातःकालतो रात्रिकी स्थितिका नाश करता है किंतु भगवानका सुप्रभात रागद्वेष रूपी दोर्षों की स्थितिको दूर करता है और प्रातःकाल तो घटपटादि थोड़े पदार्थों के देखने में ही मनुष्यों की दृष्टियों
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