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पद्मनन्दिप विंशतिका ।
वही उत्तम पदार्थ है तथा उसपरमपदार्थका दर्शनही नेत्रका फलहै यदि मोक्षस्थानका दर्शन नेत्रसे न होवे तो वहनेग्रही नहीं है आंखोंसे मोक्षरूप परमपुरुषार्थका दर्शन हो नहीं सक्ता इसलिये आंखों के होते भी आपकेविना उसपुरुषको विद्वानलोग अंधाही कहते हैं तथा वह परमार्थकादर्शन हे सरखति आपकी कृपासेही होता है इसलिये परमार्थके दर्शनमें आपही नेत्र हैं ॥ १५ ॥
गिरा नरप्राणितमेति सारतां कवित्ववक्तृत्वगुणे च सा च गीः । इदं द्वयं दुर्लभमेव ते पुनः प्रसादलेशादपि जायते नृणाम् ॥
अर्थः—मनुष्यका जो जीवन है वह बाणीसे सफल समझा जाता है और कावल तथा वक्तृत्वगुण के होनेपर वाणी सारभूत समझी जाती है किन्तु इससंसारमें कविपना तथा वक्तापना दोनोंही दुर्लभ हैं परन्तु आपके तो थोड़ेसेही प्रसाद ( अनुग्रह ) से ये दोनों गुण बातकीबात में प्राप्त हो जाते हैं ।
भावार्थः — इससंसार में बड़े कष्टोंसे तो जीवन प्राप्तहोता है यदि उसजीवनमें बाणीकी प्राप्ति न होवे तो वह दुःखोंसे पाया हुवाभी मनुष्यजन्म निस्सारही समझा जाता है इसलिये मनुष्यकेजीवनकी तो सफलता वाणीसे है और उसवाणीकी सफलता कविपनेसे तथा वक्तावननेसे होती है क्योंकि सुंदरवाणीकी भी प्राप्ति हुई किन्तु सुंदर कविताकरना तथा अच्छीतरह बोलना नहीं आया तो उसबाणीका मिलना न मिलना एकसाही है किन्तु ये दोनों बातें “अर्थात् कविपना तथा वक्तापना" संसारमें अत्यंत दुर्लभ है किन्तु हेमातः सरस्वति आपकी कृपासे इन दोनों बातोंको मनुष्य बातकीबातमें पालता है अर्थात् जिसमनुष्यपर आपकी कृपा होती है वह मनुष्य प्रसिद्ध कविभी बनजाता है और अच्छीतरह बोलनेवाला भी वह मनुष्य हो जाता है ॥ १६ ॥
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