Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 438
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४२५॥ पचनन्दिपश्चविंशतिका । तमांसि तेजांसि विजित्य वाङ्मयं प्रकाशयद्यत्परमं महन्महः । न लुप्यत तैनच तैः प्रकाश्यते स्वतः प्रकाशात्मकमेव नंदतु ।। अर्थ:-हे सरस्वति अंधकार तथा अन्यतेजोंको जीतकर प्रकाश करता हुवा तथा सर्वोत्कृष्ट, तेरीवाणी स्वरूप तेज इसलोकमें जयवंत प्रवर्ती क्योंकि जो तेज न तो अंधकारसे नाश होता है और न किसी दूसरे तेज से प्रकाशित होता है किंतु खतः प्रकाशवरूपही है। भावार्थः-यद्यपि सूर्य चन्द्र आदि बहुतोंके तेज संसारके अंदर मौजूद है किंतु हे मातः आपकेवाणी रूपीतेजकी तुलना दूसरा कोईभी तेज नहीं करसकता है क्योंकि वे समस्ततेज अंधकारहाराविनाशीक हैं तथा कईएकतेज दुसरेके प्रकाशसे प्रकाशित होते हैं और आपका तेज न तो प्रबलसेप्रबल अंधकार हाराही विनाशीक है और दूसरे तेजकी अपने प्रकाशहोनेमें सहायताभी नहीं चाहता किन्तु स्वतः प्रकाशमानही है इसलिये हे सरस्वति ऐसा आपका तेज सदा इसलोकमें जयवंत रहो ॥ २८ ॥ तव प्रसाद: कवितां करोत्यतः कथं जडस्तत्र घटेत माहशः । प्रसीद यत्रापि मयि स्खनन्दने न जातु माता विगुणेपि निष्ठुरा ॥ २९॥ अर्थ:-हे सरस्वति हे मातः तेरा प्रसादही कविताका करनेवाला है इसलिये मेरे (ग्रंथकीके) समान वज्रमूर्ख उसकविताके करनेमें कैसे चेष्टाको करसकता है? अतः इसकविताके करनेमें तू मुझपर प्रसन्न हो क्यों कि यदि अपना पुत्र निर्गुणी भी होवै तौभी माता उसके ऊपर कठोर नहीं बनती। भावार्थ:-पुत्र कैसाभी निर्गुणी तथा अविनीत क्यों न हो तो भी जिसप्रकार माता उसके ऊपर रुष्ट नहीं होती सदा उसके ऊपर दयालु ही रहती है उसीप्रकार हे सरस्वति आप भी मेरी माता हो । ५मा ++00000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००.04 For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527