Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 448
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४३५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-- इस संसार में ऐसा कौन होगा जिसने समस्तमलोंकर रहित तथा सार्थकनामको धारण करने वाले जिनेन्द्र श्रीविमलनाथको नमस्कार न किया हो अर्थात् समस्त ही जीव श्रीविमलनाथ भगवानको नमस्कार करते हैं इसीलिये श्रीविमलनाथ भगवानके नामका स्मरण ही पापीभी मनुष्यों को अत्यंत विमल बनादेता है । भावार्थ:-- - जो मनुष्य पापी हैं अर्थात् रातदिन पापका संचय करते रहते हैं यदि वे मनुष्य भी श्रीविमलनाथ जिनेन्द्रका नाम लेलेवें तो वे बातकी बातमें समस्त पापकर रहित हो जाते हैं क्योंकि विमलनाथ स्वयं समस्तप्रकारके मलोकर रहित हैं तथा ( समस्त प्रकारके मलोंकर जो रहित होवे उसको विमल कहते हैं ) इस सार्थक नामको भी विमलनाथ भगवान धारण करते हैं तथा समस्त संसारीजीव उनको नमस्कार करते हैं ॥१३॥ अनंतनाथतीर्थंकरकी स्तुति । अनंतनोपादिचतुष्यात्मकं दधाम्यनंतं इदि तद्गुणाशया भवेद्यदर्थी ननु तेन सेव्यते तदन्वितो भूरितृषेव सत्सदः ॥ अर्थः - अनंत विज्ञानादि स्वरूप श्रीअनंतनाथ भगवानको मैं उनके गुणोंकी आशासे अपने हृदय में धारण करता हूं क्योंकि संसारमें यह बात प्रत्यक्षगोचर है कि जो पुरुष जिसगुणकी प्राप्तिका इच्छुक होता है वह मनुष्य उसकी ही सेवा करता है जिसप्रकार अत्यंत प्यासा मनुष्य अपनी प्यासकी शांतिकेलिये उत्तम ( स्वच्छ जल से भरे हुए ) सरोवर की सेवा करता है । भावार्थ :-- जिसप्रकार अत्यंत प्यासा मनुष्य अपनी प्यास के बुझानेकोलये अत्यंतनिर्मल जलसे भरे हुए सरोवरकी सेवा करता है उसीप्रकार अनंतविज्ञान अनंतवीर्य अनंत सौख्य तथा अनंतदर्शन इस अनंतचतुष्टयका मैं भी आकांक्षी हूं इसलिये अनंतचतुष्टय के धारण करनेवाले श्रीअनंतनाथभगवानको मैं अपने हृदयमें धारण For Private And Personal ॥४३५॥

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