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पचनन्दिपश्चविंशतिका । अपना उपकारी मानता है तथा उसकी शक्त्यनुसार सेवा भी करता है उसीप्रकार यह जगत भी प्रमादके वश होकर अज्ञानांधकारमें पडाहुआ था और सर्वथा हिताहितके विवेकसे शून्य था उससमय श्रीआदिनाथभगवानने अपने उपदेशसे इस जगतका उद्धार किया तथा इसको पर और आत्मतलका ज्ञान कराया अतः सबसे यदि उपकारी हैं तो आदिनाथ ही भव्यजीवोंके उपकारी.हैं इसलिये हे भव्यजीवो आपके परमादरणीय तथा सेवाके पात्र श्रीआदिनाथ ही हैं ॥१॥
अजितनाथभगवानकी स्तुति । भवारिरेको न परोऽस्ति देहिनां सुहृच्च रत्नत्रयमेकमेव हि ।
स दुर्जयो येन जिनस्तदाश्रयात्ततोऽजितान्मे जिनतोऽस्तु सत्सुखम् । अर्थः-जीवोंका संसार ही एक बैरी है और दूसरा कोई भी वैरी नहीं है तथा मित्र सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय ही है और कोई दूसरा मित्र नहीं और वह संसाररूपी वैरी अत्यंत दुर्जय है किंतु जिस श्रीअजितनाथ भगवानने उस सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूपी मित्रकी सहायता से उस संसाररूपी भयंकर बैरी को सर्वथा जीत लिया है उस अजितनाथभगवानसे मुझे श्रेष्ठ सुख मिले ऐसी मेरी प्रार्थना है।
भावार्थ:-जिसप्रकार कोई भयंकर बैरी मित्रोंकी सहायतासे पलभरमें जीतलिया जाता है उसीप्रकार श्रीअजितनाथभगवानने भी सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयरूपीमित्रकी सहायतासे संसाररूपी भयंकर बैरीको जीत लिया है क्योंकि जीवोंको सबसे प्रबल बैरी संसार है और मित्र सबसे अधिक रत्नत्रय है इसलिये इसप्रकार अत्यंतबीर श्रीअजितनाथभगवान मुझे उत्तमसुखके दाता हो ऐसी मेरी प्रार्थना है ॥ २ ॥
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