________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kcbatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
॥४२३॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
'पअनन्दिपञ्चविंशतिका । तो पवित्र तीर्थ है तथा जो पुरुष मरमार्थको देखनेवाले हैं उनमनुष्यों के आनंदरूपी समुद्रके वढ़ाने में तूही चंद्रमा है।।
भावार्थः--जिससे भव्यजीव तरै उसीका नाम तीर्थ है इसलिये लोग जिसप्रकार अत्यंत निर्मल जल से भरे हुवे गंगा भादि तीर्थों को तीनोंलोककी शुद्धिका कारण समझते हैं उसीप्रकार हे मातः सरस्वति सम्यग्ज्ञानरूपी जलसे भरी हुई और समस्तलोककी शुद्धिका कारण तूभी तीर्थ है अर्थात् जो मनुष्य तुझ में गोता लगाते हैं वे मनुष्य अत्यंतशुद्ध हो जाते हैं तथा जिसप्रकार चंद्रमाके उदित होनेपर समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है उसीप्रकार हे मातः जो मनुष्य परमार्थके देखनेवाले हैं उन मनुष्योंके आनंद रूपीसमुद्रके बढ़ाने में तू चंद्रमाके समान है ॥ २४ ॥
त्वयादिबोधः खलु संस्कृतो ब्रजेत् परेषु बोधेवखिलेषु हेतुतां ।
त्वमाक्षि पुसामति दूरदर्शने त्वमेव संसारतरोः कुठारिका ॥ अर्थः -हे भगवति सरस्वति तेरे द्वारा अत्यंत पवित्रकियाहुवा मतिज्ञानही वाकीके बचे हवे समस्त श्रुत, मनः पर्यय, आदि ज्ञानों में कारण है और अत्यंत दूर देखनेमें तूही मनुष्यका नेत्र है और संसार रूपी वृक्षके काटनेकेलिये तूही कुठार है।
भावार्थ:-हे मातः समस्तज्ञानॉमें तू ही कारण पड़ती है अर्थात् तेरी ही कृपासे समस्तज्ञान आत्मा में प्रगट होते हैं और जितने भर दूर पदार्थ हैं उनके देखने में तुही नेत्र है क्योंकि जितने भर मेरू आदिक
देश से दूर, तथा राम रावण आदि कालसे दूर, तथा परमाणु आदिक खभावसे दूर पदार्थ है उन सबका का दर्शन तेरी ही कृपा से होता है और संसारके नाश करने में भी तूही कारण है अर्थात् जो मनुष्य तेरे
भक्त तथा आराधक है वे मनुष्य यथार्थतत्वज्ञानको प्राप्तकर निर्विघरीतिसे सीधे मोक्षको चले जाते हैं अर्थात्
ION
For Private And Personal