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॥४२४॥
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पबनान्दपञ्चविंशतिका । उनका संसार सर्वथा छूट जाता है ॥ २५ ॥
यथाविधानं त्वमनुस्मृता सती गुरूपदेशोयमवर्णभेदतः।
न ताः श्रियस्ते न गुणा न तत्पदं प्रयच्छसि प्राणभृते न यच्छुभे ॥ अर्थ:--हे शुभे हे सरस्वति यह गुरूका उपदेश है कि जो पुरुष शास्त्रानुसार अकारसे लेकर अंततक आपका स्मरण करने वाला है उसपुरुषके न तो कोई ऐसा लक्ष्मी है जिसको आप न देवे और न कोई उत्तम गुण तथा उत्तम पदही है जोकि आपकी कृपासे वह जीव न पासकै ।
भावार्थ:--हे मातः जो मनुष्य शास्त्रानुसार आपकी सेवा करने वाला है उस मनुष्यको अतरंग केवलज्ञानादि तथा वहिरंग समवसरणादि समस्त प्रकारकी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है तथा वह मनुष्य आपकी कृपासे औदार्य धैर्य आदिक समस्तगुणोंको भी प्राप्तकरलेता है और आपकी ही कृपासे उसको मोक्षपदकी प्राप्तिमी शीघ्र होजाती है।
अनेकजन्मार्जितपापपर्वतो विवेकवज्रेण स येन भिद्यते ।
भवदपुःशासघनान्निरेति तत्सदर्थवाक्यामृतभारमेदुरात् ॥ अर्थः--हे मातः हे सरस्वति अनेकभवोंमे संचयकियाहवा जो पापरूपी पर्वत है वह जिस विवेकरूपी वज्रके हारा तोड़ा जाता है वह विवेकरूपी वज्र श्रेष्ठ अर्थ तथा वाक्यरूपी जो अल उसका जो भार उससे वृद्धिको प्राप्त ऐसा आपका शरीर स्वरूपजो शास्त्र वहाँहुबा मेघ उससे निकला है। .
भावार्थ:-जिसप्रकार उत्तमपानीके धारणकरने वाले मेघसे वज्र उत्पन्नहोता है तथा वह वज्र पर्वत को छिन्न भिन्न करदेता है उसीप्रकार हे मातः श्रेष्ठ अर्थ तथा वाक्योंसे परिपूर्ण ऐसे आपके शास्त्रसे मनुष्यों को हिताहितका विवेक होता है तथा उसविवेकसे अनेक जन्मोंमें संचितभी पापका समूह पलभरमें नष्ट हो जाता है।॥२७॥
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