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पअनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थ:-हे मातः सरस्वति यद्यपि तू मनुष्योंके तालू तथा ओष्ठ पुटोंसे की गई है तोभी तेरी स्थिति आदि तथा अंतकर रहितही है अत: इसप्रकारके धौकर संयुक्त हे सरस्वति तूने सर्वथा एकान्तमार्गका नाश करदिया ऐसा भलीभांति प्रतीत होता है।
भावार्थ:--अनेक महाशयोंका यह सिद्धांत है कि सरस्वति कंठ तालु आदिक स्थानोंसे ही पैदा हुई है किंतु यह एकांतसिद्धांत उनका वास्तविक सियत नहीं क्योंकि यदि ऐसाही मानाजाय तो सरस्वती आदि अंतकर रहित नहीं हो सक्ती किंतु अनेकांतमतको मानकर ऐसाही स्वीकार करना चाहिये कि किसीरीतिसे सरस्वती कंठ तालु आदिकस्थानोंसे उत्पन्नभी हुई है तथा किसीरीतिसे आदि अंतकर रहितभी है अर्थात् द्रव्य श्रुतकीतो तालू कंठ आदिस्थानोंसे उत्पचि है किंतु भावश्रुत ज्ञानात्मक है इसलिये शुद्धनिश्चयनयसे वह आदि तथा अंतकर रहित है इसी आशयकोलेकर इसश्लोकसे आचार्यवर सरस्वतिमाताकी स्तुतिकरते हैं कि हेमातः यद्यपि आप किसी खरूपसे कंठ तालु आदिस्थानोंसे उत्पन्नईहो तोभी आप किसी वरूपसे आदि अंतकर रहितहीहो इसलिये इसप्रकारके धर्मोंको धारण करनेके कारण आपने एकांत विधिका सर्वथा नाशकरदिया है॥१८॥
अपि प्रयाता वशमेकजन्मनि युधेनुचिंतामणिकल्पपादपाः।
फलंति हि त्वं पुनरत्र चापरे भवे कथं तैरुपमीयसे बुधैः॥ अर्थः--हे सरस्वति मातः किसीरीतिसे वशको प्राप्त ऐसे कामधेनु, चिंतामणि, तथा कल्पवृक्ष, एकही भवमें मनुष्योंको इष्टफलके देनेवाले होते है किन्तु आप इसभवमें तथा परभवमें ( दोनोंभवोंमें ) मनुष्योंके इष्टफलों को देनेवालीहो इसलिये आपको कामधेनु, आदिकी उपमा कभीभी नहीं दीजासक्ती है॥
भावार्थ:-हे सरस्वति बहुतसे कवि जिससमय आपका वर्णन करते हैं उससमय आपको कामधेनु
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MP3001
॥४१॥
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