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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । नृणां भवत्सन्निधिसस्कृतं श्रवो विहाय नान्यद्धितमक्षयं च तत् ।
भवेदिवेकार्थमिदं परं पुनर्विमूढतार्थ विषयं समर्पयत् ॥१७॥ अर्थ:-हे मातः सरस्वति जिसकानका आपके समीपमें संस्कार कियागया है अर्थात् जो कान आपके सहवाससे शुद्ध एवं पवित्र कियागया है वही कान हितका करनेवाला तथा अविनाशी है किन्तु उससे भिन्न कान न हितकारी है और न अविनाशी है और आपके सहवाससे पवित्रही कान मनुष्यों को विवेककेलिये होता है किन्तु उससे भिन्न अपने विषयोंकी ओर झुकताहवा कान विवेककेलिये नहीं होता किन्तु विशेषतासे मूढताके लियेही होताहे।
भावार्थ:-हेमातः जिसकानसे आपके असली २ तल सुनेजाते हैं वही कान मनुष्योंको हितका करनेवाला होता है अर्थात् उसकानसे असलीतलोंको सुनकर मनुष्य खोटे मार्गमें प्रवृत नहीं होते किन्तु हितकारी मार्गसेही गमनकरते हैं तथा वही कान अविनाशी है अर्थात् उसका कभीभी नाश नहीं होता किन्तु उससे भिन्न कान अर्थात् जिसकानसे आपके असली तत्व नहीं सुने जाते वह कान न तो मनुष्योंको हितका करनेवाला होता है और न अविनाशीही होता है तथा हे सरस्वति आपके असलीतयोंसे पवित्रही कान मनुष्यों को विवेककेलिये होता है अर्थात् उसकानसे असलीतलोंको समझकर मनुष्य यहबात जानलेते हैं कि यह वस्तु हमको त्यागने योग्य है तथा यह वस्तु हमको ग्रहण करने योग्य है किंतु उसकानसे भिन्न कान मनुष्योंको विवेककेलिये नहीं होता मूढ़ताकोलियेही होता है क्योंकि वह कान अपने अन्य विषयों में अर्थात् खोटे २ गायन तथा खोटे २ शब्दोंके सुनने में प्रवृच हो जाता है इसलिये उसकानकी कृपासे मनुष्य अधिक मूडही बनजाते हैं ॥१७॥
कृत्वापि ताल्बोष्टपुटादिभिर्नृणां त्वमादिपर्यंतविवर्जितस्थितिः। इतित्वयापीदृशधर्मयुक्तया स सर्वथैकान्तविधिर्विचूर्णितः॥ १८ ॥
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१८स
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