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॥४१६मा
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । अशेषभाषात्मतया त्वया तदा कृतं न केषां हृदि मातरद्वतम् । अर्थः-हेमातः सरस्वति जिससमय तू भगवान् अर्हतमें अत्यंत उत्कर्षको प्राप्त हुईथी अर्थात् जिस समय समवसरणमें तू भगवान अर्हतके मुखसे दिव्यध्वनिरूपमें प्रकट हुईथी उससमय तेरी ध्वनि समुद्र के समान धीर तथा गंभीर थी और उससमय तू अनेक भाषास्वरूपथी इसलिये किसके मनमें तेने उस समय आश्चर्य नहीं कियाथा अर्थात् तुझको सुनकर समस्तजीव आश्चर्य करते थे।
भावार्थ:-जिससमम ज्ञानावरणादि चारघातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं उससमय केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है तथा उनकेवलीके विनाही इच्छाके दिव्यवाणी प्रगट होती है उसीसमयका ध्यानकर ग्रंथकार सरस्वती की स्तुति करते हैं कि हे मातः जिससमय आप केवलीके मुखसे दिव्यध्वनिरूप परिणत होकर निकलती है उस समय आपकी ध्वनि समुद्रकी ध्वानके समान होती है जिससे दूरभी बैठे हुवे पशु पक्षी भली भांति सुन सक्ते हैं तथा उससमय आपसमस्तभाषास्वरूप परिणत होकर उनकेवलीके मुखसे प्रकट होती हो। इसलिये समस्त पशु पक्षी आदिक अपनी २ भाषामें आपको समझलेते है तथा उनको असली तलका भली भांति निश्चय हो जाता है और आपको इसखरूपमें परिणत सुनकर वे लोग बड़ा आश्चर्य करते है ॥ १४ ॥
सचक्षुरप्येष जनस्त्वया बिना यदंध एवेति विभाव्यते बुधैः ।
तदस्य लोकत्रितयस्य लोचनं सरस्वति त्वं परमार्थदर्शने ॥ अर्थः-हे मातः सरस्वति आपकेविना नेत्रों सहितभी इसपुरुषको विहानलोग अंधाही समझते हैं इसलिये हे सरस्वति इसतीनोंलोकके वास्तविक दर्शनमें आपही नेत्र हैं।
भावार्थः यद्यपि इसलोकमें अनेक पदार्थ भरेहुवे हैं किन्तु उनसब पदार्थों में परमपदार्थ जो मोक्ष है
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For Private And Personal