Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 433
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ........... ०००००००००............................. पचनान्दपञ्चविंशतिका । चिंतामाणि तथा कल्पवृक्षकी उपमा दियाकरते है किंतु उसप्रकारकी आपकेलिये उपमा देना योग्य नहीं है क्योंकि यदि किसीरीतिसे कामधेनु तथा कल्पवृक्ष और चिंतामणि मनुष्योंके ऊपर संतुष्टहोजावे तो वे इतनाही काम करसक्ते है कि उसमनुष्यको इसीभवमें इष्टफलोंको देसक्ते हैं दुसरे भवमें नहीं किन्तु हेमातः यदि आपकिसी जीवपर संतुष्टहोजावो तो उसको इसभवमें तथा परभवमें दोनोंभवोमें इष्टफलको देती हो इसलिये वे कदापि आप की समताको धारण नहीं करसक्ते ॥ १९ ॥ - अगोचरो वासरकृन्निशाकृतो जनस्य यचेतसि वर्तते तमः। विभिद्यते वागधिदेवते त्वया त्वमुत्तमज्योतिरिति प्रगीयसे ॥ अर्थः--हे वागधिदेवते हे सरस्वति जो अंधकार सूर्य तथा चंद्रमाके भी गोचर नहीं है अर्थात् न जिस अंधकारको सूर्यदेखसक्ता है और न चंद्रमा देखसक्ता है ऐसा मनुष्योंके चित्तमें अंधकार विद्यमान है उसअंधकार को तू नाशकरती है इसलिये संसारमें तूही उत्तम ज्योति है ऐसा (विहान मनुष्य) तेरा गुणगान करते हैं। भावार्थः-यद्यपि संसारमें सूर्यचंद्र दीपक रत्न आदिक बहुतसे पदार्थ है जो अंधकारको नाशकरते हैं किंतु वे बाहिरी अंधकारको ही नाशकरते हैं मनुष्योंके मनमें स्थित जो भीतरी अंधकार है उसको नाश नहीं करसक्ते क्योंकि वह अंधकार उनके अगोचर है किंतु हेमातः आप उसभीतरी अंधकारकोभी नाशकरती हो इस | लिये सूर्यचंद्र आदिसमस्तज्योतियोंमें आपही उत्तम ज्योति हो ऐसा बड़े २ विहान कवि आपका गुणगान करते है॥२०॥ जिनेश्वरस्वच्छसर सरोजिनी त्वमंगपूर्वादिसरोजराजिता । गणेशहंसबजसेविता सदा करोषि केषां न मुदं परामिह ॥ अर्थः-हेमातः सरस्वति तू जिनेश्वररूपी जो निर्मल सरोवर उसकी तो कमलिनी है और ग्यारह अंग ॥४॥४२०॥ 229999.000000000000000000000000००००००००००40000000000000 For Private And Personal

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