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18.८
पचनन्दिपत्राविंशतिका। नवाकर नमस्कार करते हैं इसलिये आचार्यवर सरखतीके चरणकमलोंकी आशीर्वादात्मक स्तुति करते हैं कि इसप्रकार आश्चर्यके करनेवाले सरस्वतीको चरणकमल सदा इसलोकमें जयवंत हैं ॥१॥
अपेक्षते यन्न दिनं न यामिनी नचांतरं नैव बहिश्च भारति
न तापकृज्जाव्यकरं न तन्महः स्तुवे भवत्याः सकलप्रकाशकम् ॥ अर्थ:-हे सरस्वति जो आपका तेज न तो दिनकी अपेक्षा करता है और न रात्रिकी अपेक्षा करता है और न भीतरकी अपेक्षा करता है और न बाहिरकी अपेक्षा करता है और जो तेज न जीवोंको संतापका देनेवाला है और न जड़ताका करनेवाला है तथा जो समस्त प्रकारके पदार्थों का प्रकाश करनेवाला है आचार्य कहते हैं कि इसप्रकारके सरखतीके तेजको मैं मस्तकझुकाकर नमस्कार करता हूं अर्थात् ऐसा सरस्वतीका आश्चर्यका करनेवाला तेज मेरी रक्षा करो।
भावार्थः-यद्यपि संसारमें सूर्यआदि बहुतोंके तेज मौजूद हैं किंतु वे एकदूसरेकी अपेक्षाके करनेवाले हैं जिसप्रकार सूर्यका तेज तो दिनकी अपेक्षा करनेवाला है तथा चंद्रमाका तेज रात्रिकी अपेक्षा करनेवाला है और सूर्य तथा चंद्रमा दोनोंके तेज मनुष्योंको नानाप्रकारके संतापोंके देनेवाले हैं अर्थात् सूर्यके तेजसे तो मनुष्य मारे गर्मी के व्याकुल हो जाते हैं तथा चंद्रमाका तेज कामोत्पादक होनेके कारण कामी पुरुषों को नाना प्रकारके संतापोंका देनेवाला होता है और सूर्य तथा चंद्रमाके तेज बाह्यके ही प्रकाशक हैं अंतरंगके प्रकाशक नहीं हैं तथा सूर्य चंद्रमाके तेज थोड़े ही पदाथाँके प्रकाशक हैं समस्त पदार्थों के प्रकाशक नहीं हैं। किंतु
सरस्वतीका तेज न तो दिनकी अपेक्षा करता है और न रातकी अपेक्षा करता है और न वह भीतर तका ET बाहिर की ही अपेक्षा करता है और जीवोंको संतापका भी देनेवाला नहीं है और न जड़ताका करनेवाला
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Yean
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