Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 420
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४०७॥ पअनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-हे प्रभो हे जिनेन्द्र आपको देखकर कहाहुवा तथा समस्तभव्यजनोंकेमनोंको आनंदका देनेवाला और भव्यजीवों द्वारा पठ्यमान अर्थात् जिसका सदा भव्यजीव पाठ करते रहते हैं ऐसा यह आपका दर्शनस्तोत्र सदा इस पृथ्वीपर वृद्धिको प्राप्त हो ॥ ३३ ॥ इसप्रकार श्रीपानंदि आचार्य विरचित श्रीपद्मनंदि पंचविशतिकामें जिनेन्द्रस्तवन नामक अधिकार समाप्त हुआ ॥ 00000000000000000000000000000000000" अथ सरस्वतीस्तोत्रम्। वंशस्थवृत्त। जयत्यशेषामरमौलिलालितं सरस्वति त्वत्पदपंकजदयम हृदि स्थितं यजनजाड्यनाशनं रजोविमुक्तं श्रयतीत्यपूर्वताम् ॥ अर्थः-समस्तप्रकारके जो देव उनके जो मुकुट उनकरके लालित अर्थात् जिनको समस्तदेव मस्तक नवाकर नमस्कार करते हैं ऐसे हे सरस्वति मातः आपके दोनों चरणकमल सदा इसलोकमें जयवंत हैं जो चरण कमल मनमें तिष्ठतेहुए मनुष्योंकी समस्तप्रकारकी जड़ताओंके नाशकरनेवाले और रजकररहित अपूर्वताको आश्रयकरते हैं । भावार्थ:--कमल तो स्वयं जड़ होते हैं इसलिये वे दूसरोंकी जड़ताका नाश भी नहीं करसकते किंतु सरखतीके चरणकमल मनमें स्थित होनेपर ही समस्तप्रकारकी जड़ताके नाशकरनेवाले हैं और कमल तो रज (धूलि) कर सहित हैं किंतु सरस्वतीके चरणकमल रजकर रहित हैं और जिन चरणकमलोंको समस्तदेव मस्तक For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527