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पअनन्दिपश्चविंशतिका। आपके दर्शनोंकी इच्छा न रखता हो ? अर्थात् समस्त ज्ञानी पुरुष आपके दर्शनोंकी इच्छा रखते हैं।
भावार्थ:-हे प्रभो और तो समस्तपदार्थोकी सिद्धि अनेकजन्मोंमें मुझे बहुत समय हुई है किंतु हे जिनेश आपके चरणों की प्राप्ति मुझे नहीं हुई है इसलिये यदि इससमय आपके दर्शनसे मुझे आपके चरणोंकी प्राप्ति होगई तो संसारमें समस्तपदार्थों की सिद्धि होगई अतः ऐसा कोई ज्ञानी नहीं है जो आपके दर्शनोंकी इच्छा न करै किंतु समस्त ज्ञानीपुरुष आपके दर्शनोंकलिये लालायित हैं ॥ ३१ ॥
दिहे तुमम्मि जिणवर पोम्मकयं दंसणत्थुई तुज्झ जो पह पढइ तियालं भवजालं सो समोसरई ॥
दृष्टे खयि जिनवर पत्ननविकृतां दर्शनस्तुतिं तव
__यः प्रभो पठति त्रिकालं भवजाळं स स्फोटयति । अर्थः-हे प्रभो जिनेश जो भव्यजीव पद्मनंदिनामके आचार्य द्वारा कीगई आपकी दर्शन स्तुतिको तीनोंकाल पढ़ता है वह भव्यजीव संसाररूपी जालका सर्वथा नाश करदेता है।
भावार्थः-यद्यपि संसाररूपी जालका सर्वथा नाशकरना अत्यंत कठिनबात है किंतु हे प्रभो जो मनुष्य श्रीपद्मनंदिनामक आचार्य द्वारा कीगई ऐसी आपकी स्तुतिको प्रातःकाल मध्याह्नकाल और सायंकाल तीनोंकाल पढ़ता है वह मनुष्य शीघ्र ही संसाररूपी जालका नाश करदेता है ॥ ३२॥
दिखे तुमम्मि जिणवर भणियमिणं जणियजणमणाणंदं भव्वेहि पढजंतं णंदउ सुयरं धरापीठे॥
इष्टे त्वयि जिनवर भणितमिदं जनितजनमनानंदम् भव्यैः पठ्यमानं तत् नंदतु सुचिरं धरापीठे ।।
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