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॥४११
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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । उसमार्गमें ऐसे कौनसे विबुध हैं जो नहीं गये हों अर्थात् सबही गये हैं किंतु मातः तो भी वहमार्ग क्षणभरमें ऐसा मालूम होता है कि अक्षुण्ण ही हैं अर्थात् कोई भी उसमार्गसे नहीं गया है।
भावार्थ:-जिसप्रकार आकाशका मार्ग अत्यंत निर्मल तथा विस्तीर्ण है और उसपर अनेकप्रकारके अनेकदेव भी गमन करते हैं किंतु वह क्षणमात्र ऐसा मालूम पड़ता है कि इसमार्गसे कोई भी नहीं गया है उसीप्रकार हे सरस्वति हे मातः आपका मार्ग भी अत्यंत निर्मल है और विस्तीर्ण है और अनेक विद्वान उसमार्गसे गये भी हैं तोभी वह मार्ग क्षणभरमें ऐसा मालूम होता है कि उसमार्गसे कोई भी नहीं गया है अर्थात हे सरखति मातः आपका मार्ग अत्यंत गहन है॥ ६॥
तदस्तु तावत्कवितादिकं नृणां तव प्रभावात्कृतलोकविस्मयम्
भवेत्तदप्याशु पदं यदिष्यते तपोभिरुग्रैमुनिभिर्महात्मभिः ॥ अर्थः-हे मातः सरस्वति समस्तलोकको आश्चर्यके करनेवाले कविता आदिक गुण मनुष्योंको आपकी | कृपासे हों इसमें किसीप्रकारका आश्चर्य नहीं हैं किन्तु हे मातः जिस पदको बड़े २ मुनि कठिन २ तप करके प्राप्त करने की इच्छा करते हैं वह पदभी आपकी कृपासे बातकी बातमें प्राप्त हो जाता है ॥
भावार्थ:--हे मातः जो मनुष्य आपके उपासकहैं और जिनके ऊपर आपकी कृपा है उन मनुष्यों को आपके प्रसादसे समस्तलोकको आश्चर्यके करने वाली कविता आदिकी प्राप्ति होती है अर्थात् कविताआदिसे वे समस्तलोकको आश्चर्य सहित करते हैं । तथा आपकी कृपासे मनुष्योंको उस मोक्षपदकी प्राप्ति होती है जिस मोक्षपदकी बड़ें २ मुनिगण उग्रतपोंके द्वारा प्राप्त करनेकी अभिलाषा करते हैं ॥ ७ ॥
भवत्कला यत्र न वाणि मानुषे न वेत्ति शास्त्रं स चिरं पठन्नपि ।
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४११॥
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